अपनी चर्चा की सुरुवात हम लोग एक कहानी, एक प्रकरण से करते है
बात उस समय कि है जब कृष्ण , अपनी ढेर सारी रानियों और ढेर सारे बच्चों के साथ में द्वारका में रह रहे थे..... एक दिन कान्हा की सब रानियां , कान्हा के पास आई और बोली कि सुना है कि हमारे नगर में दुर्वाषा ऋषि जी आये है, हम सब लोग उनका दर्शन करने के लिये जाना चाहती है, आपसे अनुमति लेने आये है .... कान्हा ने कहा -- ठीक है, आप लोग जा सकती है...तो रानियां बोली कि दुर्वाषा जी नदी के उस पार जंगल मे आये है, हम लोग नदी पार कैसे करेंगे ?? हमारी संख्या इतनी है कि इतनी जल्दी , इतनी नाव की व्यवस्था भी नही हो सकती है...तो कान्हा ने कहा कि आप सब लोग, नदी तट पर जाना और नदी से कहना कि --
हे नदी देवी, यदि कृष्ण ने जीवन भर ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया हो तो , कृपया आप हमें मार्ग दे दो..... जैसे ही कृष्ण ने ये कहा , पत्नी स्वभाव के कारण , सभी रानियां जोर जोर से हँसते हुए बोली कि -- इतनी रानियों से विवाह करने के बाद, इतने ढेरो बच्चे पैदा करने के बाद भी आप कह रहे हो कि आपने जीवन भर ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया है ?? 😳😳😳 ये क्या मजाक कर रहे हो ....कान्हा ने मुस्कुराते हुए कहा कि देवियों , आप लोग नदी तट पर जा कर कहना तो.....सत्य सत्य ही होता है, उसे साबित करने की जरूरत नही होती है...
सब रानियां, नदी तट पर पहुँची और एक साथ बोली कि हे नदी देवी, यदि कृष्ण ने आजीवन ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया हो तो आप हमें मार्ग दे दो....इतना कहते ही, नदी में पीछे से आने वाला पानी रुक गया, और वहां का पानी आगे बह गया, नदी खाली हो गयी, ये नजारा देखकर सब रानियों को बहुत आश्चर्य हुवा, उसी आश्चर्य की अवस्था मे ही उन सभी ने नदी पार कर ली, रानियां जैसे ही नदी के उस पार पहुँची, नदी का प्रवाह फिर चालू हो गया....दुर्वाषा जी के पास पहुँची, सभी ने दुर्वाषा जी के चरण स्पर्श किये, आशीर्वाद लिया और सभी रानियों ने एक एक कटोरी खीर दुर्वाषा जी को भेंट करी, दुर्वाषा जी ने सभी से थोड़ा थोड़ा खा लिया...फिर वापस जाने के लिये, सभी रानियों ने दुर्वाषा जी से अनुमति मांगी, और नदी पार करने की समस्या रखी तो दुर्वाषा जी बोले कि आप सभी लोग नदी तट पर जाना और नदी से कहना कि -- हे नदी देवी, यदि दुर्वाषा ऋषि ने आजीवन उपवास और अक्रोध का पालन किया हो तो कृपया आप हमें मार्ग दे दो...अब फिर सब रानियों का दिमाग चकराया कि ये क्या बोल रहे है ??? इतने कटोरे खीर खा गए दुर्वाषा जी , और कह रहे है कि आजीवन उपवास का निर्वाह ??? क्रोध में आ कर किसी को भी श्राप दे देने के लिए तो दुर्वाषा जी विश्व विख्यात है, और कह रहे है कि आजीवन अक्रोध का निर्वाह ??
रानियों को कुछ समझ नही आ रहा था....भय के कारण , दुर्वाषा जी से कुछ कहने पूछने की हिम्मत भी नही हुई...सब रानियां, नदी तट पर पहुँची और फिर एक साथ बोली कि हे नदी देवी, यदि दुर्वाषा ऋषि ने आजीवन उपवास, आजीवन अक्रोध का पालन किया हो तो कृपया आप हमें मार्ग दे दो...इतना कहते ही, नदी एक बार फिर खाली हो गई, सब रानियां पार हुई, नदी का प्रवाह फिर चालू हो गया....अब तो सारी रानियां , सीधे कान्हा के पास पहुँची, और बोली कि -- महाराज, ये सब क्या है ?? इतनी रानियों से विवाह करने के बाद, इतने बच्चे पैदा करने के बाद, आप कहते हो कि आपने आजीवन ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया ???...... और दुर्वाषा जी इतनी सारी खीर खा गए, और कहते है कि आजीवन उपवास का निर्वाह किया है ??? क्रोध में आकर तो किसी को भी श्राप दे देने के लिये तो वो विश्व विख्यात है, और कह रहे है कि मैंने आजीवन अक्रोध का निर्वाह किया है ???.... और ये चारों तत्थ , चारो निवेदन सत्य है, इसका हम सब लोग साक्छात प्रमाण देख कर आ रहे है .... ये सब मामला क्या है ??? हमे तो बहुत आश्चर्य हो रहा है....
तब कान्हा ने मुस्कुराते हुए कहा कि देवियों, ये अस्तित्व, ये प्रकृति, सिर्फ उन्ही परिभाषा पर चलती है जो वास्तव में सत्य है, इस संसार मे मैक्सिमम लोगो के पास वो नजर ही नही है जो सत्य को देख सके, वास्तविकता को देख सके....कोई भी मनुष्य , विभिन्न सब्दो की वास्तविक परिभाषा तब तक जान नही सकता, सत्य देख नही सकता , जब तक कि वो किसी किसी करुणा से भरे साधु की शरण मे नही चला जाता है, बिना सत्संग सभी मनुष्यों का जीवन सिर्फ भृम में गुजर जाता है...
ये जो घटना है, क्या ये सिर्फ कहानी है ??
नही...
हम लोग जिस समाज में जी रहे हैं, यहां पर बहुत भ्रम है , बिना कथा श्रवण , बिना मजबूत भजन, हमारा पूरा जीवन सिर्फ भ्रम में , संशय में, गुस्साते , चिड़चिड़ाते ही निकल जाता है, हमें जीवन भर पता ही नहीं चलता है कि हम दुखी क्यों हैं ?? जब तक कि हम कथा रूप कान्हा , भजन रुप कान्हा का संग नहीं कर लेते हैं
नहीं तो हमारा पूरा जीवन सिर्फ भ्रम में ही गुजर जाता है
हम शादी नहीं करते हैं तो अपने आप को ब्रह्मचारी मान लेते हैं
शादी कर लेते हैं तो अपने आप को ग्रहस्थ मान लेते हैं
घर की समस्याओं के कारण , घर छोड़ कर भाग गए , वस्त्र बदल लिए , सिर के बाल साफ कर लिए तो अपने आप को वानप्रस्थी और सन्यासी मान लेते हैं
जबकि बिना कथा श्रवण , बिना भजन, हम लोग सिर्फ अविवाहित , विवाहित , भगोड़े , या भिखारी हो सकते हैं .....,ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी या सन्यासी नहीं हो सकते हैं , इसी भ्रम को अज्ञानता कहते हैं
अज्ञानता शब्द को लेकर भी हम लोग भ्रम में ही होते हैं
बिना कथा श्रवण, बिना मजबूत भजन के, हम लोग क्या मानते है ??
यदि कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में कुछ नहीं जानता है तो हम लोग उस व्यक्ति को अज्ञानी कह देते हैं जबकि ऐसा नहीं है
यदि कोई व्यक्ति किसी विषय में कुछ भी नहीं जानता है तो उस व्यक्ति को अनजान कहा जाएगा , अनभिज्ञ कहा जायेगा ... ...अज्ञानी नही ....
कम जानने वाले को -- अल्पज्ञ
सब कुछ जानने वाले को -- सर्वज्ञ
जिसे कुछ भी पता नहीं है उसे अज्ञानी नहीं कहा जाता है बल्कि अज्ञानी उसे कहा जाता है , जो इस अहंकार में जी रहा है कि मुझे सब कुछ आता है, उस अहंकार को ही अज्ञान कहते है
अज्ञान -- यानी जहाँ ज्ञान न हो
फिर ज्ञान किसे कहते है ??
रामचरित मानस में ज्ञान की एक परिभाषा --
ग्यान मान जह एकउ नाही
यानी ज्ञान उस अवस्था को कहते है , जहाँ पर किसी से भी, किसी भी प्रकार के मान (सम्मान) की चाहत न बचे ...
अहंकार मुक्त अवस्था को ही ज्ञान कहते है,
कान्हा भजन, कान्हा प्रेम का अनुभव इतना हो गया कि लोक प्रसंसा की चाहत ही खत्म हो गयी, ऐसी अवस्था को ही ज्ञान कहा गया है
यानी
जब तक हमारे अंदर लोक प्रसंसा पाने की चाहत है, लोगो से बात करने की चाहत स्ट्रांग है, फेसबुक सोशल मीडिया पर मिलने वाले लाइक, कमेंट अच्छे लग रहे है, लोगो से चैटिंग करके , बात करके मजा आ रहा है, उसमे रस आ रहा है, लोक निन्दा का रस हमे मिल रहा है, हम लोग बहस करके खुद को सही साबित करने में जुटे है, लोगो पर आरोप लगा कर अपने अहंकार को पोषित कर रहे है, झूठे अभिमान का सुख ले रहे है तो हम इस प्रकृति की नजर में अज्ञानी ही है, फिर इस बात से कोई फर्क नही पड़ता है कि हम शास्त्र की बहुत अच्छी व्याख्या करके लोगो को प्रभावित कर लेते है, दुनियां हमे ज्ञानी, सत्संगी, भक्त मान लेगी, उसकी प्रसंसा भी मिल जाएगी ...परन्तु हम वास्तव में अज्ञानी ही है प्रकृति की नजर में ....
यदि हमारा भजन मजबूत नही हुवा, भजन की मग्नता का सुख मन को नही मिला तो धर्म छेत्र में आकर भी हम लोक प्रसंसा में फँस जाते है, दुनिया की नजर में धार्मिक सत्संगी ज्ञानी भक्त कहलाने की प्रसंसा में फँस जाते है, खुद को सत्संगी मान कर झूठे अभिमान का सुख लेने लगते है...ये धार्मिक, सत्संगी, भक्त होने का, सतोगुणी अहंकार तो सबसे खतरनाक है....बाकी के तमोगुणी, रजोगुणी अहंकार को तोड़ना तो फिर भी आसान है, कुछ घटनावो के माध्यम से प्रकृति ये कार्य कर सकती है....परन्तु धर्म छेत्र में आकर यदि हमे ये सतोगुणी अहंकार पकड़ लिया तो फिर इससे बाहर आना बहुत ही मुश्किल और जटिल कार्य है...
अज्ञानता -- यानी झूठे अभिमान का सुख
इसकी जड़ें बहुत गहरी है हमारे वजूद में, हमारा मन जन्मों जन्मों से इसी की प्रैक्टिस करता आया है,
हमारे दुख का कारण हमारा मन नही है बल्कि सिर्फ वो मन है जिसे झूठे अभिमान के सुख की लत लग चुकी है (यानी काला कुत्ता ) क्योकि हमने इस काले कुत्ते को कुसंग की रोटी, बोटी, बहुत खिलाई है ...... ये काला कुत्ता हमे सत्य देखने ही नही देता है
महाभारत में एक प्रकरण है कि पांडवों ने अपने राज्य इंद्रप्रस्थ में एक महल का निर्माण किया था , जिस महल में दुर्योधन जाता है और उसे , उस महल में जल का थल में और थल का जल में भ्रम होता है इसलिए जहां पर पानी था, वहां पर वह जमीन समझकर पैर रखता है और पानी में गिर जाता है , दुर्योधन को पानी में गिरते हुए द्रौपदी देखती है और हंस देती है और उस समय द्रौपदी कहती है कि अंधे का पुत्र अंधा ...... जिसके बाद दुर्योधन को बहुत गुस्सा आता है और उसके अहंकार को बहुत चोट पड़ती है और वो द्रोपदी से बदला लेने को ठान लेता है....
कोई भी शास्त्र बहुत सारे अर्थों में लिखे जाते हैं , कहानी के रूप में भी वह हमें बहुत सारी शिक्षा देते हैं और तत्व ज्ञान के रूप में भी ....
धृतराष्ट्र -- यानी अंधा राष्ट्र , यानी हमारे समाज के मैक्सिमम लोग जिन्होंने कभी सत्य का, वास्तविकता का , ज्ञान का, प्रकाश कभी देखा ही नही है .....जैसे धृतराष्ट्र व्यक्ति के रूप में जन्म से ही अंधा था
गांधारी -- यानी हमारे समाज के वो बुद्धिजीवी लोग , जिनके पास काफी समय तक नजर थी, जीवन को परखने की , देखने की ....परन्तु समय के साथ साथ मिली लोक प्रसंसा और सत्संग के अभाव ने उनकी प्रतिभा को भी खोखला कर दिया .... लोक प्रसंसा पाने के स्वार्थ की पट्टी उनकी आँखों मे भी बंध गयी
इस धृतराष्ट + गांधारी = यानी कुसंग ने हमारे अंदर द्रोयोधन को पैदा कर दिया .....
द्रोयोधन -- यानी कुसंग के कारण, सत्संग के अभाव में, हमारे अंदर उत्पन्न हुई ढेरो दुरवृत्तिया , दूरभावनाएं, खुद को सर्वज्ञ मान लेने का अहंकार , झूठे अभिमान के सुख का व्यसनी मन .....व्यक्ति के रूप में जैसे द्रोयोधन बहुत अहंकारी है, किसी की सुनता नही है....
पाँच तत्वों से बना हमारा शरीर -- पाण्डव
द्रोपदी -- हमारी चेतना
ये दुनिया वो इंद्रप्रस्थ का महल ही है , जहाँ पर हमारे अहंकारी मन को, झूठे अभिमान के व्यसनी मन को, यानी हमारे अंदर के द्रोयोधन को सब कुछ उल्टा ही दिखता है ....जैसे व्यक्ति के रूप में द्रोयोधन को दिखता है, जहाँ पानी था वहाँ जमीन दिखती है, जहाँ जमीन थी वहाँ पानी दिखता है ...
झूठे अभिमान का व्यसनी हमारा मन, यानी द्रोयोधन ही सारे दुष्कर्म करता है अपनी अज्ञानता में, अपने अहंकार में .... और फिर उन दुष्कर्मो का जो परिणाम आता है, जो पश्चाताप की भयंकर पीड़ा होती है , वो पीड़ा कभी भी द्रोयोधन को नही होती है , बल्कि हमारी चेतना (द्रोपदी) को होती है.... उस पश्चाताप के दर्द से जब हमारी चेतना (द्रोपदी) चिल्लाती है तो उसके पाँच पति (पाण्डव) यानी पंच तत्व से बना हमारा सरीर उसकी कोई हेल्प सहायता नही कर पाता .... उस समय द्रोपदी (हमारी चेतना) की हेल्प सिर्फ एक ही शख्स करता है -- कान्हा
यानी कान्हा का रूप, कान्हा का स्मरण, कान्हा की कथा, कान्हा का भजन ....
बाकी चर्चा अगले अंकों में करेंगे, इस अज्ञान को और अधिक समझने का प्रयास करेंगे, और समझने का प्रयास करेंगे कि वास्तव में ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास क्या है ?? प्रकृति के अनुसार, कान्हा के अनुसार ....
वास्तविक उपवास, वास्तविक अक्रोध की चर्चा तो हम लोग पिछले पोस्टो में कर चुके है....
कान्हा प्रिय हो
प्रेम प्रिय हो
बात उस समय कि है जब कृष्ण , अपनी ढेर सारी रानियों और ढेर सारे बच्चों के साथ में द्वारका में रह रहे थे..... एक दिन कान्हा की सब रानियां , कान्हा के पास आई और बोली कि सुना है कि हमारे नगर में दुर्वाषा ऋषि जी आये है, हम सब लोग उनका दर्शन करने के लिये जाना चाहती है, आपसे अनुमति लेने आये है .... कान्हा ने कहा -- ठीक है, आप लोग जा सकती है...तो रानियां बोली कि दुर्वाषा जी नदी के उस पार जंगल मे आये है, हम लोग नदी पार कैसे करेंगे ?? हमारी संख्या इतनी है कि इतनी जल्दी , इतनी नाव की व्यवस्था भी नही हो सकती है...तो कान्हा ने कहा कि आप सब लोग, नदी तट पर जाना और नदी से कहना कि --
हे नदी देवी, यदि कृष्ण ने जीवन भर ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया हो तो , कृपया आप हमें मार्ग दे दो..... जैसे ही कृष्ण ने ये कहा , पत्नी स्वभाव के कारण , सभी रानियां जोर जोर से हँसते हुए बोली कि -- इतनी रानियों से विवाह करने के बाद, इतने ढेरो बच्चे पैदा करने के बाद भी आप कह रहे हो कि आपने जीवन भर ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया है ?? 😳😳😳 ये क्या मजाक कर रहे हो ....कान्हा ने मुस्कुराते हुए कहा कि देवियों , आप लोग नदी तट पर जा कर कहना तो.....सत्य सत्य ही होता है, उसे साबित करने की जरूरत नही होती है...
सब रानियां, नदी तट पर पहुँची और एक साथ बोली कि हे नदी देवी, यदि कृष्ण ने आजीवन ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया हो तो आप हमें मार्ग दे दो....इतना कहते ही, नदी में पीछे से आने वाला पानी रुक गया, और वहां का पानी आगे बह गया, नदी खाली हो गयी, ये नजारा देखकर सब रानियों को बहुत आश्चर्य हुवा, उसी आश्चर्य की अवस्था मे ही उन सभी ने नदी पार कर ली, रानियां जैसे ही नदी के उस पार पहुँची, नदी का प्रवाह फिर चालू हो गया....दुर्वाषा जी के पास पहुँची, सभी ने दुर्वाषा जी के चरण स्पर्श किये, आशीर्वाद लिया और सभी रानियों ने एक एक कटोरी खीर दुर्वाषा जी को भेंट करी, दुर्वाषा जी ने सभी से थोड़ा थोड़ा खा लिया...फिर वापस जाने के लिये, सभी रानियों ने दुर्वाषा जी से अनुमति मांगी, और नदी पार करने की समस्या रखी तो दुर्वाषा जी बोले कि आप सभी लोग नदी तट पर जाना और नदी से कहना कि -- हे नदी देवी, यदि दुर्वाषा ऋषि ने आजीवन उपवास और अक्रोध का पालन किया हो तो कृपया आप हमें मार्ग दे दो...अब फिर सब रानियों का दिमाग चकराया कि ये क्या बोल रहे है ??? इतने कटोरे खीर खा गए दुर्वाषा जी , और कह रहे है कि आजीवन उपवास का निर्वाह ??? क्रोध में आ कर किसी को भी श्राप दे देने के लिए तो दुर्वाषा जी विश्व विख्यात है, और कह रहे है कि आजीवन अक्रोध का निर्वाह ??
रानियों को कुछ समझ नही आ रहा था....भय के कारण , दुर्वाषा जी से कुछ कहने पूछने की हिम्मत भी नही हुई...सब रानियां, नदी तट पर पहुँची और फिर एक साथ बोली कि हे नदी देवी, यदि दुर्वाषा ऋषि ने आजीवन उपवास, आजीवन अक्रोध का पालन किया हो तो कृपया आप हमें मार्ग दे दो...इतना कहते ही, नदी एक बार फिर खाली हो गई, सब रानियां पार हुई, नदी का प्रवाह फिर चालू हो गया....अब तो सारी रानियां , सीधे कान्हा के पास पहुँची, और बोली कि -- महाराज, ये सब क्या है ?? इतनी रानियों से विवाह करने के बाद, इतने बच्चे पैदा करने के बाद, आप कहते हो कि आपने आजीवन ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया ???...... और दुर्वाषा जी इतनी सारी खीर खा गए, और कहते है कि आजीवन उपवास का निर्वाह किया है ??? क्रोध में आकर तो किसी को भी श्राप दे देने के लिये तो वो विश्व विख्यात है, और कह रहे है कि मैंने आजीवन अक्रोध का निर्वाह किया है ???.... और ये चारों तत्थ , चारो निवेदन सत्य है, इसका हम सब लोग साक्छात प्रमाण देख कर आ रहे है .... ये सब मामला क्या है ??? हमे तो बहुत आश्चर्य हो रहा है....
तब कान्हा ने मुस्कुराते हुए कहा कि देवियों, ये अस्तित्व, ये प्रकृति, सिर्फ उन्ही परिभाषा पर चलती है जो वास्तव में सत्य है, इस संसार मे मैक्सिमम लोगो के पास वो नजर ही नही है जो सत्य को देख सके, वास्तविकता को देख सके....कोई भी मनुष्य , विभिन्न सब्दो की वास्तविक परिभाषा तब तक जान नही सकता, सत्य देख नही सकता , जब तक कि वो किसी किसी करुणा से भरे साधु की शरण मे नही चला जाता है, बिना सत्संग सभी मनुष्यों का जीवन सिर्फ भृम में गुजर जाता है...
ये जो घटना है, क्या ये सिर्फ कहानी है ??
नही...
हम लोग जिस समाज में जी रहे हैं, यहां पर बहुत भ्रम है , बिना कथा श्रवण , बिना मजबूत भजन, हमारा पूरा जीवन सिर्फ भ्रम में , संशय में, गुस्साते , चिड़चिड़ाते ही निकल जाता है, हमें जीवन भर पता ही नहीं चलता है कि हम दुखी क्यों हैं ?? जब तक कि हम कथा रूप कान्हा , भजन रुप कान्हा का संग नहीं कर लेते हैं
नहीं तो हमारा पूरा जीवन सिर्फ भ्रम में ही गुजर जाता है
हम शादी नहीं करते हैं तो अपने आप को ब्रह्मचारी मान लेते हैं
शादी कर लेते हैं तो अपने आप को ग्रहस्थ मान लेते हैं
घर की समस्याओं के कारण , घर छोड़ कर भाग गए , वस्त्र बदल लिए , सिर के बाल साफ कर लिए तो अपने आप को वानप्रस्थी और सन्यासी मान लेते हैं
जबकि बिना कथा श्रवण , बिना भजन, हम लोग सिर्फ अविवाहित , विवाहित , भगोड़े , या भिखारी हो सकते हैं .....,ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी या सन्यासी नहीं हो सकते हैं , इसी भ्रम को अज्ञानता कहते हैं
अज्ञानता शब्द को लेकर भी हम लोग भ्रम में ही होते हैं
बिना कथा श्रवण, बिना मजबूत भजन के, हम लोग क्या मानते है ??
यदि कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में कुछ नहीं जानता है तो हम लोग उस व्यक्ति को अज्ञानी कह देते हैं जबकि ऐसा नहीं है
यदि कोई व्यक्ति किसी विषय में कुछ भी नहीं जानता है तो उस व्यक्ति को अनजान कहा जाएगा , अनभिज्ञ कहा जायेगा ... ...अज्ञानी नही ....
कम जानने वाले को -- अल्पज्ञ
सब कुछ जानने वाले को -- सर्वज्ञ
जिसे कुछ भी पता नहीं है उसे अज्ञानी नहीं कहा जाता है बल्कि अज्ञानी उसे कहा जाता है , जो इस अहंकार में जी रहा है कि मुझे सब कुछ आता है, उस अहंकार को ही अज्ञान कहते है
अज्ञान -- यानी जहाँ ज्ञान न हो
फिर ज्ञान किसे कहते है ??
रामचरित मानस में ज्ञान की एक परिभाषा --
ग्यान मान जह एकउ नाही
यानी ज्ञान उस अवस्था को कहते है , जहाँ पर किसी से भी, किसी भी प्रकार के मान (सम्मान) की चाहत न बचे ...
अहंकार मुक्त अवस्था को ही ज्ञान कहते है,
कान्हा भजन, कान्हा प्रेम का अनुभव इतना हो गया कि लोक प्रसंसा की चाहत ही खत्म हो गयी, ऐसी अवस्था को ही ज्ञान कहा गया है
यानी
जब तक हमारे अंदर लोक प्रसंसा पाने की चाहत है, लोगो से बात करने की चाहत स्ट्रांग है, फेसबुक सोशल मीडिया पर मिलने वाले लाइक, कमेंट अच्छे लग रहे है, लोगो से चैटिंग करके , बात करके मजा आ रहा है, उसमे रस आ रहा है, लोक निन्दा का रस हमे मिल रहा है, हम लोग बहस करके खुद को सही साबित करने में जुटे है, लोगो पर आरोप लगा कर अपने अहंकार को पोषित कर रहे है, झूठे अभिमान का सुख ले रहे है तो हम इस प्रकृति की नजर में अज्ञानी ही है, फिर इस बात से कोई फर्क नही पड़ता है कि हम शास्त्र की बहुत अच्छी व्याख्या करके लोगो को प्रभावित कर लेते है, दुनियां हमे ज्ञानी, सत्संगी, भक्त मान लेगी, उसकी प्रसंसा भी मिल जाएगी ...परन्तु हम वास्तव में अज्ञानी ही है प्रकृति की नजर में ....
यदि हमारा भजन मजबूत नही हुवा, भजन की मग्नता का सुख मन को नही मिला तो धर्म छेत्र में आकर भी हम लोक प्रसंसा में फँस जाते है, दुनिया की नजर में धार्मिक सत्संगी ज्ञानी भक्त कहलाने की प्रसंसा में फँस जाते है, खुद को सत्संगी मान कर झूठे अभिमान का सुख लेने लगते है...ये धार्मिक, सत्संगी, भक्त होने का, सतोगुणी अहंकार तो सबसे खतरनाक है....बाकी के तमोगुणी, रजोगुणी अहंकार को तोड़ना तो फिर भी आसान है, कुछ घटनावो के माध्यम से प्रकृति ये कार्य कर सकती है....परन्तु धर्म छेत्र में आकर यदि हमे ये सतोगुणी अहंकार पकड़ लिया तो फिर इससे बाहर आना बहुत ही मुश्किल और जटिल कार्य है...
अज्ञानता -- यानी झूठे अभिमान का सुख
इसकी जड़ें बहुत गहरी है हमारे वजूद में, हमारा मन जन्मों जन्मों से इसी की प्रैक्टिस करता आया है,
हमारे दुख का कारण हमारा मन नही है बल्कि सिर्फ वो मन है जिसे झूठे अभिमान के सुख की लत लग चुकी है (यानी काला कुत्ता ) क्योकि हमने इस काले कुत्ते को कुसंग की रोटी, बोटी, बहुत खिलाई है ...... ये काला कुत्ता हमे सत्य देखने ही नही देता है
महाभारत में एक प्रकरण है कि पांडवों ने अपने राज्य इंद्रप्रस्थ में एक महल का निर्माण किया था , जिस महल में दुर्योधन जाता है और उसे , उस महल में जल का थल में और थल का जल में भ्रम होता है इसलिए जहां पर पानी था, वहां पर वह जमीन समझकर पैर रखता है और पानी में गिर जाता है , दुर्योधन को पानी में गिरते हुए द्रौपदी देखती है और हंस देती है और उस समय द्रौपदी कहती है कि अंधे का पुत्र अंधा ...... जिसके बाद दुर्योधन को बहुत गुस्सा आता है और उसके अहंकार को बहुत चोट पड़ती है और वो द्रोपदी से बदला लेने को ठान लेता है....
कोई भी शास्त्र बहुत सारे अर्थों में लिखे जाते हैं , कहानी के रूप में भी वह हमें बहुत सारी शिक्षा देते हैं और तत्व ज्ञान के रूप में भी ....
धृतराष्ट्र -- यानी अंधा राष्ट्र , यानी हमारे समाज के मैक्सिमम लोग जिन्होंने कभी सत्य का, वास्तविकता का , ज्ञान का, प्रकाश कभी देखा ही नही है .....जैसे धृतराष्ट्र व्यक्ति के रूप में जन्म से ही अंधा था
गांधारी -- यानी हमारे समाज के वो बुद्धिजीवी लोग , जिनके पास काफी समय तक नजर थी, जीवन को परखने की , देखने की ....परन्तु समय के साथ साथ मिली लोक प्रसंसा और सत्संग के अभाव ने उनकी प्रतिभा को भी खोखला कर दिया .... लोक प्रसंसा पाने के स्वार्थ की पट्टी उनकी आँखों मे भी बंध गयी
इस धृतराष्ट + गांधारी = यानी कुसंग ने हमारे अंदर द्रोयोधन को पैदा कर दिया .....
द्रोयोधन -- यानी कुसंग के कारण, सत्संग के अभाव में, हमारे अंदर उत्पन्न हुई ढेरो दुरवृत्तिया , दूरभावनाएं, खुद को सर्वज्ञ मान लेने का अहंकार , झूठे अभिमान के सुख का व्यसनी मन .....व्यक्ति के रूप में जैसे द्रोयोधन बहुत अहंकारी है, किसी की सुनता नही है....
पाँच तत्वों से बना हमारा शरीर -- पाण्डव
द्रोपदी -- हमारी चेतना
ये दुनिया वो इंद्रप्रस्थ का महल ही है , जहाँ पर हमारे अहंकारी मन को, झूठे अभिमान के व्यसनी मन को, यानी हमारे अंदर के द्रोयोधन को सब कुछ उल्टा ही दिखता है ....जैसे व्यक्ति के रूप में द्रोयोधन को दिखता है, जहाँ पानी था वहाँ जमीन दिखती है, जहाँ जमीन थी वहाँ पानी दिखता है ...
झूठे अभिमान का व्यसनी हमारा मन, यानी द्रोयोधन ही सारे दुष्कर्म करता है अपनी अज्ञानता में, अपने अहंकार में .... और फिर उन दुष्कर्मो का जो परिणाम आता है, जो पश्चाताप की भयंकर पीड़ा होती है , वो पीड़ा कभी भी द्रोयोधन को नही होती है , बल्कि हमारी चेतना (द्रोपदी) को होती है.... उस पश्चाताप के दर्द से जब हमारी चेतना (द्रोपदी) चिल्लाती है तो उसके पाँच पति (पाण्डव) यानी पंच तत्व से बना हमारा सरीर उसकी कोई हेल्प सहायता नही कर पाता .... उस समय द्रोपदी (हमारी चेतना) की हेल्प सिर्फ एक ही शख्स करता है -- कान्हा
यानी कान्हा का रूप, कान्हा का स्मरण, कान्हा की कथा, कान्हा का भजन ....
बाकी चर्चा अगले अंकों में करेंगे, इस अज्ञान को और अधिक समझने का प्रयास करेंगे, और समझने का प्रयास करेंगे कि वास्तव में ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास क्या है ?? प्रकृति के अनुसार, कान्हा के अनुसार ....
वास्तविक उपवास, वास्तविक अक्रोध की चर्चा तो हम लोग पिछले पोस्टो में कर चुके है....
कान्हा प्रिय हो
प्रेम प्रिय हो
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