Sunday, November 25, 2018

71वें निरंकारी संत समागम स्थल पर निरंकारी प्रदर्शनी का हुआ उद्घाटन


71वें वार्षिक निरंकारी संत समागम स्थल समालखा में निरंकारी सद्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने माता सविंदर जी के जीवन को समर्पित निंरकारी प्रदर्शनी का उद्घाटन आज अपने कर कमलों द्वारा किया। इस प्रदर्शनी के चार भाग हैं-निरंकारी प्रदर्शनी, बाल प्रदर्शनी, स्वास्थ्य प्रदर्शनी व सन्त निरंकारी चेरिटेबल फाउंडेशन प्रदर्शनी। इस वर्ष निरंकारी प्रर्दशनी का मुख्य भाव  मां सविंदर- एक रोशन सफर है। प्रर्दशनी में माता सविंदर जी के सहज, दिव्य व समर्पित गुणों को उजागर किया गया है। प्रदर्शनी में उनके जीवन के भिन्न-भिन्न पहलू फोटो, चित्रों तथा कट-आउट द्वारा दिखाए गए हैं।

Tuesday, November 13, 2018

निधिवन ... वृंदावन



♻ एक बार कलकत्ता का एक भक्त अपने गुरु की सुनाई हुई भागवत कथा से इतना मोहित हुआ कि वह हर समय वृन्दावन आने की सोचने लगा उसके गुरु उसे निधिवन के बारे में बताया करते थे और कहते थे कि आज भी भगवान यहाँ रात्रि को रास रचाने आते है उस भक्त को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था और एक बार उसने निश्चय किया कि वृन्दावन जाऊंगा और ऐसा ही हुआ श्री राधा रानी की कृपा हुई और आ गया वृन्दावन उसने जी भर कर बिहारी जी का राधा रानी का दर्शन किया लेकिन अब भी उसे इस बात का यकीन नहीं था कि निधिवन में रात्रि को भगवान रास रचाते है उसने सोचा कि एक दिन निधिवन रुक कर देखता हू इसलिए वो वही पर रूक गया और देर तक बैठा रहा और जब शाम होने को आई तब एक पेड़ की लता की आड़ में छिप गया

♻ जब शाम के वक़्त वहा के पुजारी निधिवन को खाली करवाने लगे तो उनकी नज़र उस भक्त पर पड गयी और उसे वहा से जाने को कहा तब तो वो भक्त वहा से चला गया लेकिन अगले दिन फिर से वहा जाकर छिप गया और फिर से शाम होते ही पुजारियों द्वारा निकाला गया और आखिर में उसने निधिवन में एक ऐसा कोना खोज निकाला जहा उसे कोई न ढूंढ़ सकता था और वो आँखे मूंदे सारी रात वही निधिवन में बैठा रहा और अगले दिन जब सेविकाए निधिवन में साफ़ सफाई करने आई तो पाया कि एक व्यक्ति बेसुध पड़ा हुआ है और उसके मुह से झाग निकल रहा है

♻ तब उन सेविकाओ ने सभी को बताया तो लोगो कि भीड़ वहा पर जमा हो गयी सभी ने उस व्यक्ति से बोलने की कोशिश की लेकिन वो कुछ भी नहीं बोल रहा था लोगो ने उसे खाने के लिए मिठाई आदि दी लेकिन उसने नहीं ली और ऐसे ही वो ३ दिन तक बिना कुछ खाएपीये ऐसे ही बेसुध पड़ा रहा और ५ दिन बाद उसके गुरु जो कि गोवर्धन में रहते थे बताया गया तब उसके गुरूजी वहा पहुचे और उसे गोवर्धन अपने आश्रम में ले आये आश्रम में भी वो ऐसे ही रहा और एक दिन सुबह सुबह उस व्यक्ति ने अपने गुरूजी से लिखने के लिए कलम और कागज़ माँगा गुरूजी ने ऐसा ही किया और उसे वो कलम और कागज़ देकर मानसी गंगा में स्नान करने चले गए जब गुरूजी स्नान करके आश्रममें आये पाया कि उस भक्त ने दीवार के सहारे लग कर अपना शरीर त्याग दिया थाऔर उस कागज़ पर कुछ लिखा हुआ था उस पर लिखा था-

♻ "गुरूजी मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई है,पहले सिर्फ आपको ही बताना चाहता हू ,आप कहते थे न कि निधिवन में आज भी भगवान रास रचाने आते है और मैं आपकी कही बात पर यकीन नहीं करता था, लेकिन जब मैं निधिवन में रूका तब मैंने साक्षात बांके बिहारी का राधा रानी के साथ गोपियों के साथ रास रचाते हुए दर्शन किया और अब मेरी जीने की कोईभी इच्छा नहीं है ,इस जीवन का जो लक्ष्य था वो लक्ष्य मैंने प्राप्त कर लिया है और अब मैं जीकर करूँगा भी क्या?

♻ श्याम सुन्दर की सुन्दरता के आगे ये दुनिया वालो की सुन्दरता कुछ भी नहीं है,इसलिए आपके श्री चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार कीजिये"

♻ वो पत्र जो उस भक्त ने अपने गुरु के लिए लिखा था आज भी मथुरा के सरकारी संघ्रालय में रखा हुआ है और बंगाली भाषा में लिखा हुआ है
♻ कहा जाता है निधिवन के सारी लताये गोपियाँ है जो एक दूसरे कि बाहों में बाहें डाले खड़ी है जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती है तो वहाँ की लताये गोपियाँ बन जाती है, और फिर रास लीला आरंभ होती है,इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु बंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की "परम दिव्यातिदिव्य लीला" है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.

♻ जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि में शयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते है तो जल पीला मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है. राधे..........राधे..........

श्रीकृष्ण भक्त पागल बाबा



एक पंडितजी थे, वो श्रीबांके बिहारी लाल को बहुत मानते थे, सुबह-शाम बस ठाकुरजी ~ ठाकुरजी करके ही उनका समय व्यतीत होता..||

पारिवारिक समस्या के कारण उन्हें धन की आवश्यकता हुई.. तो पंडितजी सेठ जी के पास धन मांगने गये.. सेठ जी धन दे तो दिया, पर उस धन को लौटाने की बारह किस्त बांध दी.. पंडितजी को कोई एतराज ना हुआ.. उन्होंने स्वीकृति प्रदान कर दी..||
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अब धीरे-धीरे पंडितजी ने ११ किस्त भर दीं एक किस्त ना भर सके.. इस पर सेठ जी १२ वीं किस्त के समय निकल जाने पर पूरे धन का मुकद्दमा पंडितजी पर लगा दिया..||
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कोर्ट-कचहरी हो गयी.. जज साहब बोले: पंडितजी तुम्हारी तरफ से कौन गवाही देगा.. इस पर पंडितजी बोले कि मेरे ठाकुर बांकेबिहारी लाल जी गवाही देंगे.. पूरा कोर्ट ठहाकों से भर गया.. अब गवाही की तारीख तय हो गयी..||

पंडितजी ने अपनी अर्जी ठाकुरजी के श्रीचरणों में लिखकर रख दी, अब गवाही का दिन आया कोर्ट सजा हुआ था, वकील-जज अपनी दलीलें पेश कर रहे थे.. पंडित को ठाकुरजी पर भरोसा था..||
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जज ने कहा: पंडित अपने गवाह को बुलाओ, पंडित ने ठाकुर जी के चरणों का ध्यान लगाया, तभी वहाँ एक वृद्व आया.. जिसके चेहरे पर मनोरम तेज था, उसने आते ही गवाही पंडितजी के पक्ष में दे दी.. वृद्व की दलीलें सेठ के वहीखाते से मेल खाती थीं कि फलां-फलां तारीख को किश्तें चुकाई गयीं।
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अब पंडित को ससम्मान रिहा कर दिया गया.. ततपश्चात जज साहब पंडित से बोले कि ये वृद्व जन कौन थे, जो गवाही देकर चले गये.. तो पंडित बोला: अरे जज साहब यही तो मेरा ठाकुर था..||
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जो भक्त की दुविधा देख ना सका और भरोसे की लाज बचाने आ गया.. इतना सुनना था की जज पंडित जी के चरणों में लेट गया.. और ठाकुरजी का पता पूछा.. पंडित बोला मेरा ठाकुर तो सर्वत्र है.. वो हर जगह है, अब जज ने घरबार काम धंधा सब छोङ ठाकुर को ढूंढने निकल पङा.. सालों बीत गये पर ठाकुर ना मिला..||

अब जज पागल-सा मैला कुचैला हो गया, वह भंडारों में जाता पत्तलों पर से जुठन उठाता.. उसमें से आधा जूठन ठाकुर जी मूर्ति को अर्पित करता और आधा खुद खाता.. इसे देख कर लोग उसके खिलाफ हो गये, उसे मारते पीटते.. पर वो ना सुधरा, जूठन बटोर कर खाता और खिलाता रहा..||
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एक भंडारे में लोगों ने अपनी पत्तलों में कुछ ना छोङा, ताकी ये पागल ठाकुरजी को जूठन ना खिला सके.. पर उसने फिर भी सभी पत्तलों को पोंछ-पाछकर एक निवाल इकट्ठा किया और अपने मुख में डाल लिया..||
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पर अरे ये क्या, वो ठाकुर को खिलाना तो भूल ही गया, अब क्या करे.. उसने वो निवाला अन्दर ना सटका की पहले मैं खा लूंगा तो ठाकुर का अपमान हो जायेगा और थूका तो अन्न का अपमान होगा..||
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करे तो क्या करें निवाल मुँह में लेकर ठाकुर जी के चरणों का ध्यान लगा रहा था कि एक सुंदर ललाट चेहरा लिये बाल-गोपाल स्वरूप में बच्चा पागल जज के पास आया और बोला: क्यों जज साहब, आज मेरा भोजन कहाँ है.. जज साहब मन ही मन गोपाल छवि निहारते हुये अश्रू धारा के साथ बोले: ठाकुर बङी गलती हुई, आज जो पहले तुझे भोजन ना करा सका..||
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पर अब क्या करुं..??
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तो मन मोहन ठाकुर जी मुस्करा के बोले अरे जज तू तो निरा पागल हो गया है रे जब से अब तक मुझे दूसरों का जूठन खिलाता रहा..||
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आज अपना जूठन खिलाने में इतना संकोच चल निकाल निवाले को आज तेरी जूठन सही..||
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जज की आंखों से अविरल धारा निकल पङी जो रुकने का नाम ना ले रही और मेरा ठाकुर मेरा ठाकुर कहता-कहता बाल गोपाल के श्रीचरणों में गिर पङा और वहीं देह का त्याग कर दिया..||
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और मित्रों वो पागल जज कोई और नहीं वही (पागल बाबा) थे, जिनका विशाल मंदिर आज वृन्दावन में स्थित है..
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भाव के भूखें हैं प्रभू और भाव ही एक सार है -
और भावना से जो भजे तो भव से बेङा पार है..||
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गोवर्धनजी पर्वत की परिक्रमा क्यों?

श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को भगवान का रूप बताया है और उसी की पूजा करने के लिए सभी को प्रेरित किया था।

आज भी गोवर्धन पर्वत चमत्कारी है और वहां जाने वाले हर व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने वाले हर व्यक्ति को जीवन में कभी भी पैसों की कमी नहीं होती है।
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एक कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लेने के पूर्व राधाजी से भी साथ चलने का निवेदन किया।
इस पर राधाजी ने कहा कि मेरा मन पृथ्वी पर वृंदावन, यमुना और गोवर्धन पर्वत के बिना नहीं लगेगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने अपने हृदय की ओर दृष्टि डाली जिससे एक तेज निकल कर रास भूमि पर जा गिरा। यही तेज पर्वत के रूप में परिवर्तित हो गया।
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शास्त्रों के अनुसार यह पर्वत रत्नमय, झरनों, कदम्ब आदि वृक्षों से भरा हुआ था एवं कई अन्य सामग्री भी इसमें उपलब्ध थी।
इसे देखकर राधाजी प्रसन्न हुई तथा श्रीकृष्ण के साथ उन्होंने भी पृथ्वी पर अवतार धारण किया।
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कभी विचार किया है कि हम श्रीगिरिराजजी की परिक्रमा क्यों करते हैं?
अज्ञानता अथवा अनभिज्ञता से किया हुआ अलौकिक कार्य भी सुन्दर फल का ही दाता है, तो यदि उसका स्वरूप एवं भाव समझकर हम कोई अलौकिक कार्य करें, तो उसके बाह्याभ्यान्तर फल कितना सुन्दर होगा, यह विचारणीय है।
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परिक्रमा का भाव समझिये। हम जिसकी परिक्रमा कर रहें हों, उसके चारों ओर घूमते हैं।
जब किसी वस्तु पर मन को केन्द्रित करना होता है, तो उसे मध्य में रखा जाता है, वही केन्द्र बिन्दु होता है। अर्थात् जब हम श्रीगिरिराजजी की परिक्रमा करते हैं तो हम उन्हें मध्य में रखकर यह बताते हैं कि हमारे ध्यान का पूरा केन्द्र आप ही हैं और हमारे चित्त की वृत्ति आप में ही है और सदा रहे। दूसरा भावात्मक पक्ष यह भी है कि जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसके चारों ओर घूमना हमें अच्छा लगता है, सुखकारी लगता है।
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श्रीगिरिराजजी के चारों ओर घूमकर हम उनके प्रति अपने प्रेम और समर्पण का भी प्रदर्शन करते हैं। परिक्रमा का एक कारण यह भी है कि श्रीगिरिराजजी के चारों ओर सभी स्थलों पर श्रीठाकुरजी ने अनेक लीलायें की हैं जिनका भ्रमण करने से हमें उनकी लीलाओं का अनुसंधान रहता है।
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परिक्रमा के चार मुख्य नियम होते हैं जिनका पालन करने से परिक्रमा अधिक फलकारी बनती है।
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“मुखे भग्वन्नामः,
हृदि भगवद्रूपम्,
हस्तौ अगलितं फलम्, नवमासगर्भवतीवत् चलनम्”
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अर्थात्, मुख में सतत् भगवत्-नाम, हृदय में प्रभु के स्वरूप का ही चिंतन, दोनों हाथों में प्रभु को समर्पित करने योग्य ताजा फल,
और नौ मास का गर्भ धारण किये हुई स्त्री जैसी चाल, ताकि अधिक से अधिक समय हम प्रभु की टहल और चिंतन में व्यतीत कर सकें।
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श्रीगिरिराजजी पाँच स्वरूप से हमें अनुभव करा सकते हैं, दर्शन देते हैं। पर्वत रूप में, सफेद सर्प के रूप में, सात बरस के ग्वाल/बालक के रूप में, गाय के रूप में और सिंह के रूप में।
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श्रीगिरिराजजी का ऐसा सुन्दर और अद्भुत स्वरूप है कि इसे जानने के बाद कौन यह नहीं गाना चाहेगा कि “गोवर्धन की रहिये तरहटी श्री गोवर्धन की रहिये…”।
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श्री श्रीनाथजी व् श्री गिरिराज जी दोनों एक ही है ।
🎋श्री गिरिराज धारण जी की जय🎋

मंदिर का घंटा स्टेटिक डिस्चार्ज यंत्र

किसी भी मंदिर में प्रवेश करते समय आरम्भ में ही एक बड़ा घंटा बंधा होता है. मंदिर में प्रवेश करने वाला प्रत्येक भक्त पहले घंटानाद करता है और फिर मंदिर में प्रवेश करता है.

क्या कारण है इसके पीछे?

इसका एक वैज्ञानिक कारण है..

जब हम बृहद घंटे के नीचे खड़े होकर सर ऊँचा करके हाथ उठाकर घंटा बजाते हैं, तब प्रचंड घंटानाद होता है.

यह ध्वनि 330 मीटर प्रति सेकंड के वेग से अपने उद्गम स्थान से दूर जाती है, ध्वनि की यही शक्ति कंपन के माध्यम से प्रवास करती है. आप उस वक्त घंटे के नीचे खडे़ होते हैं. अतः ध्वनि का नाद आपके सहस्रारचक्र
(ब्रम्हरंध्र,सिर के ठीक ऊपर) में प्रवेश कर शरीरमार्ग से
भूमि में प्रवेश करता है.

यह ध्वनि प्रवास करते समय आपके मन में (मस्तिष्क में) चलने वाले असंख्य विचार, चिंता, तनाव, उदासी, मनोविकार आदि इन समस्त नकारात्मक विचारों को अपने साथ ले जाती हैं, और आप निर्विकार अवस्था में परमेश्वर के सामने जाते हैं. तब आपके भाव शुद्धतापूर्वक परमेश्वर को समर्पित होते हैं.

घंटे के नाद की तरंगों के अत्यंत तीव्र के आघात से आस-पास के वातावरण के व हमारे शरीर के सूक्ष्म कीटाणुओं का नाश होता है, जिससे वातावरण मे शुद्धता रहती है, और हमें स्वास्थ्य लाभ होता है.

इसीलिए मंदिर मे प्रवेश करते समय घंटानाद अवश्य करें, और थोड़ा समय घंटे के नीचे खडे़ रह कर घंटानाद का आनंद अवश्य लें. आप चिंतामुक्त व शुचिर्भूत बनेगें.

ईश्वर की दिव्य ऊर्जा व मंदिर गर्भ की दिव्य ऊर्जाशक्ति आपका मस्तिष्क ग्रहण करेगा. आप प्रसन्न होंगे और शांति मिलेगी.

अतः आत्म-ज्ञान ,आत्म-जागरण, और दिव्यजीवन के परम आनंद की अनुभूति के लिये मंदिर जाएं व घंटानाद अवश्य करें.

शिवपुराण में वर्णित है मृत्यु के ये 12 संकेत

धर्म ग्रंथों में भगवान शिव को महाकाल भी कहा गया है। महाकाल का अर्थ है काल यानी मृत्यु भी जिसके अधीन हो। भगवान शिव जन्म-मृत्यु से मुक्त हैं। अनेक धर्म ग्रंथों में भगवान शंकर को अनादि व अजन्मा बताया गया है। भगवान शंकर से संबंधित अनेक धर्मग्रंथ प्रचलित हैं, लेकिन शिवपुराण उन सभी में सबसे अधिक प्रामाणिक माना गया है।

इस ग्रंथ में भगवान शिव से संबंधित अनेक रहस्यमयी बातें बताई गई हैं। इसके अलावा इस ग्रंथ में ऐसी अनेक बातें लिखी हैं, जो आमजन नहीं जानते। शिवपुराण में भगवान शिव ने माता पार्वती को मृत्यु के संबंध में कुछ विशेष संकेत बताए हैं। इन संकेतों को समझकर यह जाना जा सकता है कि किस व्यक्ति की मौत कितने समय में हो सकती है। ये संकेत इस प्रकार हैं-
  1.  शिवपुराण के अनुसार जिस मनुष्य को ग्रहों के दर्शन होने पर भी दिशाओं का ज्ञान न हो, मन में बैचेनी छाई रहे, तो उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने में हो जाती है।
  2.  जिस व्यक्ति को अचानक नीली मक्खियां आकर घेर लें। उसकी आयु एक महीना ही शेष जाननी चाहिए।
  3. शिवपुराण में भगवान शिव ने बताया है कि जिस मनुष्य के सिर पर गिद्ध, कौवा अथवा कबूतर आकर बैठ जाए, वह एक महीने के भीतर ही मर जाता है। ऐसा शिवपुराण में बताया गया है।
     
  4. यदि अचानक किसी व्यक्ति का शरीर सफेद या पीला पड़ जाए और लाल निशान दिखाई दें तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाएगी। जिस मनुष्य का मुंह, कान, आंख और जीभ ठीक से काम न करें, शिवपुराण के अनुसार उसकी मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाती है।      
                                                                                                                                                   
  5. जिस मनुष्य को चंद्रमा व सूर्य के आस-पास का चमकीला घेरा काला या लाल दिखाई दे, तो उस मनुष्य की मृत्यु 15 दिन के अंदर हो जाती है। अरूंधती तारा व चंद्रमा जिसे न दिखाई दे अथवा जिसे अन्य तारे भी ठीक से न दिखाई दें, ऐसे मनुष्य की मृत्यु एक महीने के भीतर हो जाती है।

     
  6.  त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) में जिसकी नाक बहने लगे, उसका जीवन पंद्रह दिन से अधिक नहीं चलता। यदि किसी व्यक्ति के मुंह और कंठ बार-बार सूखने लगे तो यह जानना चाहिए कि 6 महीने बीत-बीतते उसकी आयु समाप्त हो जाएगी।
  7. जब किसी व्यक्ति को जल, तेल, घी तथा दर्पण में अपनी परछाई न दिखाई दे, तो समझना चाहिए कि उसकी आयु 6 माह से अधिक नहीं है। जब कोई अपनी छाया को सिर से रहित देखे अथवा अपने को छाया से रहित पाए तो ऐसा मनुष्य एक महीने भी जीवित नहीं रहता।

     
  8. जब किसी मनुष्य का बायां हाथ लगातार एक सप्ताह तक फड़कता ही रहे, तब उसका जीवन एक मास ही शेष है, ऐसा जानना चाहिए। जब सारे अंगों में अंगड़ाई आने लगे और तालू सूख जाए, तब वह मनुष्य एक मास तक ही जीवित रहता है।

     
  9. जिस मनुष्य को ध्रुव तारा अथवा सूर्यमंडल का भी ठीक से दर्शन न हो। रात में इंद्रधनुष और दोपहर में उल्कापात होता दिखाई दे तथा गिद्ध और कौवे घेरे रहें तो उसकी आयु 6 महीने से अधिक नहीं होती। ऐसा शिवपुराण में बताया गया है।

     
  10. जो मनुष्य अचानक सूर्य और चंद्रमा को राहू से ग्रस्त देखता है (चंद्रमा और सूर्य काले दिखाई देने लगते हैं) और संपूर्ण दिशाएं जिसे घुमती दिखाई देती हैं, उसकी मृत्यु 6 महीने के अंदर हो जाती है।

     
  11. शिवपुराण के अनुसार जो व्यक्ति हिरण के पीछे होने वाली शिकारियों की भयानक आवाज को भी जल्दी नहीं सुनता, उसकी मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाती है। जिसे आकाश में सप्तर्षि तारे न दिखाई दें, उस मनुष्य की आयु भी 6 महीने ही शेष समझनी चाहिए।
                                                   
  12. शिवपुराण के अनुसार जिस व्यक्ति को अग्नि का प्रकाश ठीक से दिखाई न दे और चारों ओर काला अंधकार दिखाई दे तो उसका जीवन भी 6 महीने के भीतर समाप्त हो जाता है।

माँ सीता की रसोई और हनुमान जी का भोजन

घटना उस समय की है जब श्री राम और देवी सीता वनवास की अवधि पूरी करके अयोध्या लौट चुके हैं। अन्य सब लोग तो श्री राम के राज्याभिषेक के उपरांत अपने अपने राज्यों को लौट गए, किंतु हनुमान जी ने श्री राम के चरणों में रहने को ही जीवन का लक्ष्य माना।

एक दिन देवी सीता के मन में आया कि हनुमान ने लंका में आकर मुझे खोज निकाला और फिर युद्ध में भी श्री राम को अनुपम सहायता की, अब भी अपने घर से दूर रह कर हमारी सेवा करते हैं, तो मुझे भी उनके सम्मान में कुछ करना चाहिए। यह विचार कर उन्होंने हनुमान को अपनी रसोई से भोजन के लिए आमंत्रित कर डाला माँ स्वयं पका कर खिलाएँगी आज अपने पुत्र हनुमान को।

सुबह से माता रसोई में व्यस्त हैं हर प्रकार से हनुमान जी की पसंद के भोजन पकाए जा रहे हैं। एक थाल में मोतीचूर के लड्डू सजे हैं, तो दुसरे में जलेबियाँ पूड़ी और कचोरी और बूंदी भी पकाए जा रहे हैं आज किसी को भोजन की आज्ञा नहीं जब तक कि हनुमान न खा लें प्रभु राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न सभी प्रतीक्षा में हैं कि कब हनुमान भोजन के लिए आयें और कब हमारी भी पेट पूजा हो।

दोपहर हुई और  निमंत्रण के समय अन्य्सार पवनपुत्र का आगमन हुआ बड़े शौक से आ कर माता की चरण वन्दना की और अनुमति पाकर आसन पर विराजे माँ परोसने लगी और पुत्र खाने लगा। लायो माता लायो पूड़ी दो, कचोरी दो, लड्डू दो हनुमान मांग मांग कर खा रहे हैं और माता रीझ कर खिला रही हैं थाल के थाल सफाचट होते जा रहे हैं पर हनुमान की तृप्ति नहीं हुई माता ने जितना पकाया था सब समाप्त, किंतु अभी पेट कहाँ भरा लल्ला का?

माता सीता पुनः भागी रसोई की ओर, पुनः चूल्हा जलाया, पकाना आरम्भ किया, उधर हनुमान पुकार रहे हैं, माता बहुत स्वादिष्ट भोजन है, और दीजिये, अभी पेट नहीं भरा माता पकाती जा रही हैं, हनुमान खाते जा रहे हैं भण्डार का सारा अन्न समाप्त माता पर धर्मसंकट आन पडा है, क्या करें? भागी गयीं श्री राम प्रभु से सहायता की गुहार करने प्रभु आप ही कुछ कीजिये, और भंडार का प्रबंध कीजिये, ये हनुमान तो सब चट किये जा रहा है।

श्री राम सुन कर हंस दीये, बोले, सीते, तुमने मेरे भक्त को अब तक नहीं पहचाना उसका पेट इन सबसे नहीं भरने वाला, उसे कुछ और चाहिए देवी ने पूछा, क्या है वो वस्तु जो मेरे हनुमान लल्ला को तृप्ति देगी? रामजी बोले चलो मेरे संग, मंदिर में ले गए, वहां तुलसी माँ विराजित है एक पत्ता हाथ में लिया, आँख बंद करके उसमें अपने स्नेह, अपने आशीष, अपनी कृपा का समावेश किया, और देवी को पकड़ा दिया, जायो देवी अपने पुत्र को संतुष्ट करो।

माता भी समझ चुकी अब तो अपने पुत्र की इच्छा को सौम्य मुस्कान लिए लौटीं रसोई की ओर, बोलीं, पुत्र हाथ बढायो और वो ग्रहण करो जिसकी इच्छा मन में लिए तुम मेरा पूरा भण्डार निपटा गए हनुमान जी ने हाथ बढाया और अभिमंत्रित तुलसीदल ग्रहण किया मुंह में रखते ही चित्त प्रसन्न, और आत्मा तृप्त आसन से उठ खड़े हुए, बोले माँ, आनंद आ गया आपने पहले ही दे दिया होता तो इतना परिश्रम न करना पड़ता आपको।

माता हंस पडी, बोलीं, पुत्र तुम्हारी महिमा केवल तुम्हारे प्रभु जानते हैं वो भगवान् और तुम उनके भक्त, मैं माता तो बीच में यूं ही आ गयी हनुमान ने चरणों में प्रणाम किया, बोले, माँ आप बीच में हो तो ही प्रसाद मिला है आज मुझे, आपके श्री कर से माता के नयनों में आनंद के अश्रु चमक आये, और मुख से अपार आशीष अपने हनुमान लल्ला के लिए।

भीतर के "मैं" का मिटना ज़रूरी है.... !

सुकरात समुन्द्र तट पर टहल रहे थे| उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी |

वो उसके पास गए और प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर पूछा , -''तुम क्यों रो रहे हो?''


लड़के ने कहा- 'ये जो मेरे हाथ में प्याला है मैं उसमें इस समुन्द्र को भरना चाहता हूँ पर यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं |''


बच्चे की बात सुनकर सुकरात विस्माद में चले गये और स्वयं रोने लगे |
अब पूछने की बारी बच्चे की थी |


बच्चा कहने लगा- आप भी मेरी तरह रोने लगे पर आपका प्याला कहाँ है?'

सुकरात ने जवाब दिया- बालक, तुम छोटे से प्याले में समुन्द्र भरना चाहते हो,और मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में सारे संसार की जानकारी भरना चाहता हूँ |

आज तुमने सिखा दिया कि समुन्द्र प्याले में नहीं समा सकता है , मैं व्यर्थ ही बेचैन रहा |''

यह सुनके बच्चे ने प्याले को दूर समुन्द्र में फेंक दिया और बोला- "सागर अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता तो मेरा प्याला तो तुम्हारे में समा सकता है |"इतना सुनना था कि सुकरात बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले-
"बहुत कीमती सूत्र हाथ में लगा है|

हे परमात्मा ! आप तो सारा का सारा मुझ में नहीं समा सकते हैं पर मैं तो सारा का सारा आपमें लीन हो सकता हूँ |"

ईश्वर की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था तो भगवान उस बालक में समा गए |
सुकरात का सारा अभिमान ध्वस्त कराया | जिस सुकरात से मिलने के सम्राट समय लेते थे वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में लोट गए थे |

ईश्वर जब आपको अपनी शरण में लेते हैं तब आपके अंदर का "मैं " सबसे पहले मिटता है |

या यूँ कहें....जब आपके अंदर का "मैं" मिटता है तभी ईश्वर की कृपा होती है |

वृन्दावन बिहारी जी की लीला....

बिहारी तेरी यारी पे, बलिहारी रे बलिहारी...!!

बात आज से नौ वर्ष पूर्व वृन्दावन के मोतीझील स्थान के एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार की है।


एक १५-१६ वर्षीय श्वेतांक नामक किशोर दसवीं की परिक्षाएँ देने के बाद अपने नाना-नानी के यहाँ छुट्टियाँ बिताने आया।


वृन्दावन वह पहली बार आया था और वृन्दावन की महिमा उसने अपने नानाजी से हमेशा से ही सुनी हुई थी।


कोई बाहर से आता तो वे सर्वप्रथम बिहारीजी के दर्शन करने की कहते थे और कहते:-
"बेटा ! यहाँ तौ जो करैं सो बिहारीजी ही करैं, जाय कै सबसे पहले बिहारीजी के दर्शन करकै आओ, जो कछु हैं सो बिहारीजी ही हैं।"


एक डेढ महीने की छुट्टियाँ में वह यह सोचकर आया था वृन्दावन जाकर खूब घूमूंगा, दर्शन करुंगा।


लम्बी छुट्टियों के कारण घर से भी और कोई नही आया था उसके साथ, अपने मामा जी के साथ अकेला ही आया था।


अब यहाँ आने के बाद मामा जी ने उसे बिहारीजी के दर्शन करवाए, और वो अपनी छुट्टियों का आनन्द लेने लगा।


यहाँ घर पर नाना-नानी जी और मामा जी के अतिरिक्त घर के सदस्य के रुप में ही बाल गोपाल जी का श्रीविग्रह विराजमान था।


घर पर नाना जी से बिहारीजी की चर्चा सुनना और आस-पड़ोस के समवय बालकों के मित्र बन जाने से उनके साथ क्रिकेट वगैरह खेलना।
घूमने के बहाने घर के कुछ छोटे-मोटे काम वगैरह भी करके ले आता क्योंकि वहाँ घर पर मामा जी के अतिरिक्त उसे घुमाने वाला और कोई नही था।
नाना-नानी जी वृद्धावस्था और अस्वस्थता के कारण से असमर्थ थे और मामा जी अपने काम में व्यस्त।


एक दिन वह इसी तरह घर से निकलकर अखण्डानन्द आश्रम तक ही आया था कि बन्दरों के समूह ने उसे घेर लिया।


वह ये देख वह बहुत ही भयभीत हो गया क्योंकि उसके लिये ये सब बिल्कुल अप्रत्याशित था।


कुछ सूझ नही रहा था तभी उसे नाना जी की कही बिहारीजी वाली बात याद आ गयी कि- "यहाँ तौ जो करैं सो बिहारीजी करैं"


और वो कुछ मन में और कुछ जोर जोर से बिहारी जी, बिहारी जी पुकारने लगा अचानक उसे पीछे से आवाज सुनाई दी- "चलो भागो सब के सब।"
उसने पीछे मुड़कर देखा तो उससे तनिक छोटा हष्ट्पुष्ट एक बृजवासी बालक हाथ में एक लकड़ी लिये हुए सामने आ गया और बोला - "डर मत ! अब मैं आय गयो हूँ !"


और क्षण भर में ही सारे बन्दर भाग गये।


श्वेतांक ने बृजवासी बालक पूछा- तुम्हे बन्दरों से डर नही लगता तो हँस कर बोला - "नाँय, मोय डर नाँय लगे।"


बृजवासी बालक ने पूछा - "तुम कौन हो?"


श्वेतांक ने बताया- "मैं तो वृन्दावन घूमने आया था लेकिन कैसे घूमूं?"
बृजवासी बालक ने कहा- "मेरे संग चलो मैं घुमाय दूंगो"


अब वे मित्र बन गये और उस दिन वृन्दावन के कई मन्दिरों के दर्शन करवाने के बाद उस बालक ने अपने पास से ही श्वेतांक को चाट-पकौड़ी भी खिलाई और हर तरह से उसका ध्यान रखा और फ़िर दूसरे दिन मिलने का समय निश्चित कर दोनों वापस हो लिये।


अगले दिन वह फ़िर वहाँ पहुचाँ तो उस बालक को हाथ में छ्ड़ी लिये हुए हँसते हुए प्रतीक्षा करते हुए पाया।


उसके पास पहुँचते ही बोला - "तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रह्यौ हो।"
और फ़िर वही आनन्द से भरे दोनों वृन्दावन के मन्दिरों में दर्शन करते घूमते रहे, और जो भी खाने-पीने का मन हुआ खाया-पिया लेकिन प्रत्येक वस्तु का मूल्य बृजवासी बालक ने ही दिया और कई बार कहने पर भी देने नही दिया।


बृजवासी ने कहा -"अरे हमाय वृन्दावन घूमवे कूं आये हौ तो तुमै कैसे मूल्य दैवन दैंगे।"


इसी तरह चार-पाँच दिन बीत गये और लगभग वृन्दावन के सभी मन्दिरों के दर्शन हो गये थे।


एक दिन श्वेतांक ने बृजवासी बालक से पूछा- "तुम पैरों में जूते या चप्पल क्यों नही पहनते हो, चलो आज तुम्हारी चप्पलें ले लें।"


बृजवासी बालक ने जवाब दिया-"अरे भईया बिहारी जी में चप्पल पहन कै अन्दर नाँय जावैं याही तै नाय पहनूं।"


इन चार-पाँच दिनों में श्वेतांक ने घर में किसी से उस बृजवासी बालक की चर्चा नही की थी और उसे बताने का ध्यान भी नही आया था।
उसे तो बस एक दिन बीतने के बाद दूसरे दिन की प्रतीक्षा रहने लगी और घर पर सभी यही सोचते कि घर पर मन न लगने के कारण मित्र मण्डली के साथ क्रिकेट वगैरह खेल रहा होगा।


इधर एक दिन घूमते हुए कुछ देर हो गयी बृजवासी बालक ने हँसते हुए पूछा -"अब तौ खुश हौ वृन्दावन घूम कै?"


श्वेतांक ने हँस कर "हाँ" कहा और कुछ समय और साथ रहने के लिये कहा तो बृजवासी लगभग दौड़कर जाते हुए बोला - "नाँय ! अब बिहारी जी खुलबे कौ समय है गयौ है।"


और वह बृजवासी बालक हँसता हुआ बिना कुछ पूछने का मौका दिये आँखों से ओझल हो गया।


घर देर से पहुँचने पर नाना जी नाराज हुए कि -
"कहाँ घूमते रहते हो सारा समय, यहाँ सभी से पूछने पर उन्होने बताया तुम चार-पाँच दिनों से इनके साथ नही खेल रहे हो, कहाँ थे?"
श्वेतांक ने जब सारी बात नाना जी को बताई तो उन्होंने पूछा - "कैसा था वो बालक"


श्वेतांक ने बताया- "तेरह-चौदह वर्ष का है, घुटनों से कुछ नीची धोती और कुर्ता या बगलबंदी पहने साथ ही एक अंगोछा सा डाले हुए, हाथ में एक लकड़ी लिये हुये।"


श्वेतांक ने बताया- "मुझ पर तो उसने बहुत पैसे खर्च किये लेकिन पैसे होते हुए भी उसने अपने लिए चप्पलें नही लीं पता नही क्यों?"
उसके नानाजी ने उससे कहा कि- "कल उसे घर पर बुलाकर लाना और उसके पैसे देना।"


दूसरे दिन वह उस स्थान पर गया लेकिन उसे वह बृजवासी बालक कहीं नही मिला, बहुत ढूंढा पर वह कहीं नही दिखा, जबकि उसने पूछने पर बताया था कि वो यहीं पर तो रहता है, लेकिन अब हर जगह और हर गली में ढूंढने पर भी फ़िर कभी दिखाई नही दिया।


आज भी जब कभी श्वेतांक वृन्दावन आता है तो उसकी निगाहें, प्रत्येक स्थान पर, अपने उस मित्र को ढूढने की कोशिश करती हैं।
बाँके बिहारी लाल की जय...जय जय श्री राधे कृष्णा...
बिहारी तेरी यारी पे, बलिहारी रे बलिहारी...!!


हे ईश्वर हमारे ह्रदय में वो प्रेम भाव भर दो, जिससे विबस होकर बिहारी जी हमें भी बृन्दावन की सैर करवाये।

श्रद्धा और समर्पण

एक गाय घास चरने के लिए एक जंगल में चली गई। शाम ढलने के करीब थी। उसने देखा कि एक बाघ उसकी तरफ दबे पांव बढ़ रहा है। वह डर के मारे इधर-उधर भागने लगी। वह बाघ भी उसके पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए गाय को सामने एक तालाब दिखाई दिया। घबराई हुई गाय उस तालाब के अंदर घुस गई। वह बाघ भी उसका पीछा करते हुए तालाब के अंदर घुस गया। तब उन्होंने देखा कि वह तालाब बहुत गहरा नहीं था। उसमें पानी कम था और वह कीचड़ से भरा हुआ था। उन दोनों के बीच की दूरी काफी कम हुई थी। लेकिन अब वह कुछ नहीं कर पा रहे थे। वह गाय उस किचड़ के अंदर धीरे-धीरे धंसने लगी। वह बाघ भी उसके पास होते हुए भी उसे पकड़ नहीं सका। वह भी धीरे-धीरे कीचड़ के अंदर धंसने लगा। दोनों भी करीब करीब गले तक उस कीचड़ के अंदर फस गए। दोनों हिल भी नहीं पा रहे थे। गाय के करीब होने के बावजूद वह बाघ उसे पकड़ नहीं पा रहा था। 

थोड़ी देर बाद गाय ने उस बाघ से पूछा, क्या तुम्हारा कोई गुरु या मालिक है? 


बाघ ने गुर्राते हुए कहा, मैं तो जंगल का राजा हूं। मेरा कोई मालिक नहीं। मैं खुद ही जंगल का मालिक हूं। 


गाय ने कहा, लेकिन तुम्हारे उस शक्ति का यहां पर क्या उपयोग है?
उस बाघ ने कहा, तुम भी तो फस गई हो और मरने के करीब हो। तुम्हारी भी तो हालत मेरे जैसी है।


गाय ने मुस्कुराते हुए कहा, बिलकुल नहीं। मेरा मालिक जब शाम को घर आएगा और मुझे वहां पर नहीं पाएगा तो वह ढूंढते हुए यहां जरूर आएगा और मुझे इस कीचड़ से निकाल कर अपने घर ले जाएगा। तुम्हें कौन ले जाएगा?


थोड़ी ही देर में सच में ही एक आदमी वहां पर आया और गाय को कीचड़ से निकालकर अपने घर ले गया। जाते समय गाय और उसका मालिक दोनों एक दूसरे की तरफ कृतज्ञता पूर्वक देख रहे थे। वे चाहते हुए भी उस बाघ को कीचड़ से नहीं निकाल सकते थे क्योंकि उनकी जान के लिए वह खतरा था।


गाय समर्पित ह्रदय का प्रतीक है। बाघ अहंकारी मन है और मालिक सद्गुरु का प्रतीक है। कीचड़ यह संसार है। और यह संघर्ष अस्तित्व की लड़ाई है। किसी पर निर्भर नहीं होना अच्छी बात है लेकिन उसकी अति नहीं होनी चाहिए। आपको किसी मित्र,किसी गुरु, किसी सहयोगी की हमेशा ही जरूरत होती है।

अज्ञानता क्या है ?? ब्रह्मचारी और अविवाहित में अंतर क्या है ??

अपनी चर्चा की सुरुवात हम लोग एक कहानी, एक प्रकरण से करते है

बात उस समय कि है  जब कृष्ण , अपनी ढेर सारी रानियों  और ढेर सारे बच्चों के साथ में  द्वारका में रह रहे थे..... एक दिन कान्हा की सब रानियां , कान्हा के पास आई और बोली कि सुना है कि हमारे नगर में दुर्वाषा  ऋषि जी आये है, हम सब लोग उनका दर्शन करने के लिये जाना चाहती है, आपसे अनुमति लेने आये है .... कान्हा ने कहा -- ठीक है, आप लोग जा सकती है...तो रानियां बोली कि  दुर्वाषा जी नदी के उस पार जंगल मे आये है, हम लोग नदी पार कैसे करेंगे ??  हमारी संख्या इतनी है कि इतनी जल्दी , इतनी नाव की व्यवस्था भी नही हो सकती है...तो कान्हा ने कहा कि आप सब लोग, नदी तट पर जाना  और  नदी से कहना कि --

हे नदी देवी, यदि कृष्ण ने जीवन भर ब्रह्मचर्य  और सन्यास का पालन किया हो तो , कृपया आप हमें मार्ग दे दो..... जैसे ही कृष्ण ने ये कहा ,  पत्नी स्वभाव के कारण , सभी रानियां जोर जोर से हँसते हुए बोली कि -- इतनी रानियों से विवाह करने के बाद, इतने ढेरो बच्चे पैदा करने के बाद भी आप कह रहे हो कि आपने जीवन भर ब्रह्मचर्य  और  सन्यास का पालन किया है ?? 😳😳😳 ये क्या मजाक कर रहे हो ....कान्हा ने मुस्कुराते हुए कहा कि देवियों , आप लोग नदी तट पर जा कर कहना तो.....सत्य सत्य ही होता है, उसे साबित करने की जरूरत नही होती है...

सब रानियां, नदी तट पर पहुँची और एक साथ बोली कि हे नदी देवी, यदि कृष्ण ने आजीवन ब्रह्मचर्य और सन्यास का पालन किया हो तो आप हमें मार्ग दे दो....इतना कहते ही, नदी में पीछे से आने वाला पानी रुक गया, और वहां का पानी आगे बह गया,  नदी खाली हो गयी, ये नजारा देखकर सब रानियों को बहुत आश्चर्य हुवा, उसी आश्चर्य की अवस्था मे ही उन सभी ने नदी पार कर ली, रानियां जैसे ही नदी के उस पार पहुँची, नदी का प्रवाह फिर चालू हो गया....दुर्वाषा जी के पास पहुँची, सभी ने दुर्वाषा जी के चरण स्पर्श किये, आशीर्वाद लिया  और सभी रानियों ने एक एक कटोरी खीर दुर्वाषा जी को भेंट करी,  दुर्वाषा जी ने सभी से थोड़ा थोड़ा खा लिया...फिर वापस जाने के लिये, सभी रानियों ने दुर्वाषा जी से अनुमति मांगी, और नदी पार करने की समस्या रखी तो दुर्वाषा जी बोले कि आप सभी लोग नदी तट पर जाना  और नदी से कहना कि --  हे नदी देवी,  यदि दुर्वाषा ऋषि ने आजीवन उपवास और अक्रोध  का पालन किया हो तो कृपया आप हमें मार्ग दे दो...अब फिर सब रानियों का दिमाग चकराया कि ये क्या बोल रहे है ???  इतने कटोरे खीर खा गए दुर्वाषा जी , और कह रहे है कि आजीवन उपवास  का निर्वाह ???  क्रोध में आ कर किसी को भी श्राप दे देने के लिए तो दुर्वाषा जी विश्व विख्यात है,  और कह रहे है कि आजीवन अक्रोध का निर्वाह ??

रानियों को कुछ समझ नही आ रहा था....भय के कारण , दुर्वाषा जी से कुछ कहने पूछने की हिम्मत भी नही हुई...सब रानियां, नदी तट पर पहुँची और फिर एक साथ बोली कि  हे नदी देवी,  यदि दुर्वाषा ऋषि ने आजीवन उपवास, आजीवन अक्रोध का पालन किया हो तो कृपया आप हमें मार्ग दे दो...इतना कहते ही, नदी एक बार फिर खाली हो गई, सब रानियां पार हुई,  नदी का प्रवाह फिर चालू हो गया....अब तो सारी रानियां , सीधे कान्हा के पास पहुँची, और बोली कि -- महाराज, ये सब क्या है ??  इतनी रानियों से विवाह करने के बाद, इतने बच्चे पैदा करने के बाद,  आप कहते हो कि  आपने आजीवन ब्रह्मचर्य और सन्यास  का पालन किया ???...... और दुर्वाषा जी इतनी सारी खीर खा गए,  और कहते है कि आजीवन उपवास का निर्वाह किया है ???  क्रोध में आकर तो किसी को भी श्राप दे देने के लिये तो वो विश्व विख्यात है,  और कह रहे है कि मैंने आजीवन अक्रोध का निर्वाह किया है ???.... और ये चारों तत्थ ,  चारो निवेदन  सत्य है, इसका हम सब लोग साक्छात  प्रमाण देख कर आ रहे है .... ये सब मामला क्या है ???  हमे तो बहुत आश्चर्य हो रहा है....

तब कान्हा ने  मुस्कुराते  हुए  कहा  कि  देवियों, ये अस्तित्व, ये प्रकृति, सिर्फ उन्ही परिभाषा पर चलती है जो वास्तव में सत्य है, इस संसार मे मैक्सिमम लोगो के पास वो नजर ही नही है जो सत्य को देख सके, वास्तविकता को देख सके....कोई भी मनुष्य , विभिन्न सब्दो की वास्तविक परिभाषा तब तक  जान नही सकता, सत्य देख नही सकता , जब तक कि वो किसी किसी करुणा से भरे साधु की शरण मे नही चला जाता है, बिना सत्संग सभी मनुष्यों का जीवन सिर्फ भृम में गुजर जाता है...

ये जो घटना है, क्या ये सिर्फ कहानी है ??

नही...

 हम लोग जिस समाज में जी रहे हैं,  यहां पर बहुत भ्रम है , बिना कथा श्रवण , बिना मजबूत भजन,  हमारा पूरा जीवन सिर्फ भ्रम में , संशय में,  गुस्साते , चिड़चिड़ाते ही निकल जाता है, हमें जीवन भर   पता ही नहीं चलता है कि हम दुखी क्यों हैं ??  जब तक  कि  हम कथा रूप कान्हा , भजन रुप कान्हा का संग नहीं कर लेते हैं

नहीं तो हमारा पूरा जीवन सिर्फ भ्रम में ही गुजर जाता है

हम शादी नहीं करते हैं तो अपने आप को ब्रह्मचारी मान लेते हैं

 शादी कर लेते हैं तो अपने आप को  ग्रहस्थ  मान लेते हैं

घर की समस्याओं के कारण , घर छोड़ कर भाग गए , वस्त्र बदल लिए , सिर के बाल साफ कर लिए तो अपने आप को  वानप्रस्थी  और सन्यासी मान लेते हैं

 जबकि बिना कथा श्रवण , बिना भजन,  हम लोग सिर्फ अविवाहित , विवाहित ,  भगोड़े , या  भिखारी हो सकते हैं .....,ब्रह्मचारी,  गृहस्थ, वानप्रस्थी  या सन्यासी नहीं हो सकते हैं , इसी भ्रम को अज्ञानता कहते हैं

 अज्ञानता शब्द को लेकर भी हम लोग भ्रम में ही होते हैं

बिना कथा श्रवण, बिना मजबूत भजन के, हम लोग क्या मानते है ??

यदि कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में कुछ नहीं जानता है तो हम लोग उस व्यक्ति को अज्ञानी कह देते हैं जबकि ऐसा नहीं है

 यदि कोई व्यक्ति किसी विषय में कुछ भी नहीं जानता है तो उस व्यक्ति  को अनजान कहा जाएगा ,  अनभिज्ञ कहा जायेगा ... ...अज्ञानी नही ....

कम जानने वाले को -- अल्पज्ञ

सब कुछ जानने वाले को -- सर्वज्ञ

जिसे कुछ भी पता नहीं है उसे अज्ञानी नहीं कहा जाता है बल्कि अज्ञानी उसे कहा जाता है , जो इस अहंकार में जी रहा है कि मुझे सब कुछ आता है, उस अहंकार को ही अज्ञान कहते है

अज्ञान -- यानी जहाँ ज्ञान न हो

फिर ज्ञान किसे कहते है ??

रामचरित मानस में ज्ञान की एक परिभाषा --

ग्यान मान जह एकउ नाही

यानी ज्ञान उस अवस्था को कहते है , जहाँ पर किसी से भी, किसी भी प्रकार के मान (सम्मान) की चाहत न बचे ...

अहंकार मुक्त अवस्था को ही ज्ञान कहते है,
कान्हा  भजन, कान्हा प्रेम का अनुभव इतना हो गया कि लोक प्रसंसा की चाहत ही खत्म हो गयी, ऐसी अवस्था को ही ज्ञान कहा गया है

यानी

जब तक हमारे अंदर लोक प्रसंसा पाने की चाहत है, लोगो से बात करने की चाहत स्ट्रांग है, फेसबुक सोशल मीडिया पर मिलने वाले लाइक, कमेंट अच्छे लग रहे है, लोगो से चैटिंग  करके , बात करके मजा आ रहा है, उसमे रस  आ रहा है, लोक निन्दा का रस हमे मिल रहा है, हम लोग बहस करके खुद को सही साबित करने में जुटे है,  लोगो पर आरोप लगा कर अपने अहंकार को पोषित कर रहे है, झूठे अभिमान का सुख ले रहे है तो हम  इस प्रकृति की नजर में  अज्ञानी ही है,  फिर इस बात से कोई फर्क नही पड़ता है कि हम शास्त्र की बहुत अच्छी व्याख्या करके लोगो को प्रभावित कर लेते है,  दुनियां हमे ज्ञानी, सत्संगी, भक्त मान लेगी, उसकी प्रसंसा भी मिल जाएगी ...परन्तु  हम वास्तव में अज्ञानी ही है प्रकृति की नजर में ....

यदि हमारा भजन मजबूत नही हुवा, भजन की मग्नता का सुख मन को नही मिला तो धर्म छेत्र में आकर भी हम लोक प्रसंसा में फँस जाते है, दुनिया की नजर में  धार्मिक सत्संगी ज्ञानी भक्त कहलाने की प्रसंसा में फँस जाते है, खुद को सत्संगी मान कर झूठे अभिमान का सुख लेने लगते है...ये धार्मिक, सत्संगी, भक्त होने का, सतोगुणी अहंकार तो सबसे खतरनाक है....बाकी के तमोगुणी, रजोगुणी अहंकार को तोड़ना तो फिर भी आसान है, कुछ घटनावो के माध्यम से प्रकृति ये कार्य कर सकती है....परन्तु धर्म छेत्र में आकर यदि  हमे ये सतोगुणी अहंकार पकड़ लिया  तो फिर इससे बाहर आना बहुत ही मुश्किल और जटिल कार्य है...

अज्ञानता  -- यानी झूठे अभिमान का सुख

इसकी जड़ें बहुत गहरी है हमारे वजूद में, हमारा मन जन्मों जन्मों से इसी की प्रैक्टिस करता आया है,

हमारे दुख का कारण हमारा मन नही है बल्कि   सिर्फ वो मन है जिसे झूठे अभिमान के सुख की लत लग चुकी है  (यानी काला कुत्ता ) क्योकि हमने इस  काले कुत्ते को  कुसंग की रोटी, बोटी, बहुत खिलाई है ...... ये काला कुत्ता हमे सत्य देखने ही नही देता है


महाभारत में एक प्रकरण है कि  पांडवों ने अपने  राज्य इंद्रप्रस्थ में एक महल का निर्माण किया था ,  जिस महल में दुर्योधन जाता है और उसे , उस महल में जल का थल में  और  थल का जल में भ्रम होता है इसलिए जहां पर पानी था,  वहां पर वह जमीन समझकर पैर रखता है और पानी में गिर जाता है ,  दुर्योधन को पानी में गिरते हुए द्रौपदी देखती है और हंस देती है और उस समय द्रौपदी कहती है  कि अंधे का पुत्र अंधा ...... जिसके बाद दुर्योधन को बहुत गुस्सा आता है और उसके अहंकार को बहुत चोट पड़ती है और वो द्रोपदी  से बदला लेने को ठान  लेता है....

कोई भी शास्त्र बहुत सारे अर्थों में लिखे जाते हैं , कहानी के रूप में भी वह हमें बहुत सारी शिक्षा देते हैं  और  तत्व ज्ञान के रूप में भी ....

धृतराष्ट्र  --  यानी अंधा राष्ट्र ,  यानी  हमारे  समाज के  मैक्सिमम  लोग जिन्होंने कभी सत्य का, वास्तविकता का , ज्ञान का,  प्रकाश  कभी देखा ही नही है .....जैसे धृतराष्ट्र व्यक्ति के रूप में जन्म से ही अंधा था

गांधारी  -- यानी  हमारे समाज के वो बुद्धिजीवी लोग , जिनके पास काफी समय तक नजर थी, जीवन को परखने की , देखने की ....परन्तु  समय के साथ साथ मिली लोक प्रसंसा  और सत्संग के अभाव ने  उनकी प्रतिभा को भी खोखला कर दिया .... लोक प्रसंसा पाने के स्वार्थ की पट्टी उनकी आँखों मे भी बंध गयी

इस धृतराष्ट  +  गांधारी  =  यानी कुसंग ने  हमारे अंदर  द्रोयोधन को पैदा कर दिया .....

द्रोयोधन  --  यानी  कुसंग के कारण, सत्संग के अभाव  में,  हमारे अंदर उत्पन्न हुई ढेरो  दुरवृत्तिया ,  दूरभावनाएं, खुद को सर्वज्ञ मान लेने का अहंकार , झूठे अभिमान के सुख का व्यसनी मन .....व्यक्ति के रूप में जैसे द्रोयोधन बहुत अहंकारी है, किसी की सुनता नही है....

पाँच तत्वों से बना हमारा शरीर -- पाण्डव

द्रोपदी -- हमारी चेतना

ये दुनिया वो इंद्रप्रस्थ का महल ही है , जहाँ पर हमारे अहंकारी मन को, झूठे अभिमान के व्यसनी मन को, यानी हमारे अंदर के  द्रोयोधन को सब कुछ उल्टा ही दिखता है ....जैसे व्यक्ति के रूप में द्रोयोधन को दिखता है, जहाँ पानी था वहाँ जमीन दिखती है, जहाँ जमीन थी वहाँ पानी दिखता है ...

झूठे अभिमान का व्यसनी हमारा मन, यानी द्रोयोधन ही सारे दुष्कर्म करता है अपनी अज्ञानता में, अपने अहंकार में .... और फिर उन दुष्कर्मो का जो परिणाम आता है, जो पश्चाताप की भयंकर पीड़ा होती है , वो पीड़ा कभी भी द्रोयोधन को नही होती है , बल्कि हमारी चेतना (द्रोपदी) को होती है.... उस पश्चाताप के दर्द से जब हमारी चेतना (द्रोपदी) चिल्लाती है  तो उसके पाँच पति (पाण्डव) यानी पंच तत्व से बना हमारा सरीर उसकी कोई हेल्प सहायता नही कर पाता .... उस समय द्रोपदी (हमारी चेतना) की हेल्प सिर्फ एक ही शख्स करता है -- कान्हा

यानी कान्हा का रूप, कान्हा  का स्मरण, कान्हा की कथा, कान्हा का भजन ....

बाकी चर्चा अगले अंकों  में करेंगे, इस अज्ञान को और अधिक समझने का प्रयास करेंगे, और समझने का प्रयास करेंगे कि वास्तव में ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास क्या है ?? प्रकृति के अनुसार, कान्हा के अनुसार ....

वास्तविक उपवास, वास्तविक अक्रोध की चर्चा तो हम लोग पिछले पोस्टो में कर चुके है....

कान्हा प्रिय हो
प्रेम प्रिय हो

भक्त_सखुबाई

महाराष्ट्र में कृष्णा नदी के किनारे करहाड़ नामक एक स्थान है, वहाँ एक ब्राह्मण रहता था

उसके घर में चार प्राणी थे- ब्राह्मण, उसकी स्त्री, पुत्र और साध्वी पुत्रवधू।

ब्राह्मण की पुत्रवधू का नाम था ‘सखूबाई’।

सखूबाई जितनी अधिक भक्त, आज्ञा कारिणी, सुशील, नम्र और सरल हृदय थी उसकी सास उतनी ही अधिक दुष्टा, अभिमानी, कुटिला और कठोर हृदय थी।

पति व पुत्र भी उसी के स्वभाव का अनुसरण करते थे।

सखूबाई सुबह से लेकर रात तक बिना थके-हारे घर केे सारे काम करती थी।

शरीर की शक्ति से अधिक कार्य करने के कारण अस्वस्थ रहती, फिर भी वह आलस्य का अनुभव न करके इसे ही अपना कर्तव्य समझती।

मन ही मन भगवान् के त्रिभुवन स्वरूप का अखण्ड ध्यान और केशव, विठ्ठल, कृष्ण गोविन्द नामों का स्मरण करती रहती।

दिन भर काम करने के बाद भी उसे सास की गालियाँ और लात-घूंसे सहन करने पड़ते।

पति के सामने दो बूँद आँसू निकालकर हृदय को शीतल करना उसके नसीब में ही नहीं था।

कभी-कभी बिना कुसूर के मार गालियों की बौछार उसके हृदय में शूल की तरह चुभती थी

परन्तु अपने शील स्वभाव के कारण वह सब बातें पल में ही भूल जाती।

इतना होने पर भी वह इस दुःख को भगवान् का आशीर्वाद समझकर प्रसन्न रहती और सदा कृतज्ञता प्रकट करती कि मेरे प्रभु की मुझ पर विशेष कृपा है

जो मुझे ऐसा परिवार दिया वरना सुखों के बीच में रहकर मैं उन्हें भूल जाती और मोह वश माया जाल में फँस जाती।

एक दिन एक पड़ोसिन ने उसकी ऐसी दशा को देखकर कहा- ‘‘क्या तेरे नेहर में कोई नहीं है जो तेरी खोज ख़बर ले’।

उसने कहा ‘‘मेरा नेहर पण्ढ़रपुर है, मेरे माँ-बाप रुक्मिणी-कृष्ण हैं।

एक दिन वे मुझे अपने पास बुलाकर मेरा दुःख दूर करेंगे।’’

सखूबाई घर के काम ख़त्म कर कृष्णा नदी से पानी भरने गयी, तभी उसने देखा कि भक्तों के दल नाम-संकीर्तन करते हुए पण्ढ़रपुर जा रहे हैं

एकादशी के दिन वहाँ बड़ा भारी मेला लगता है।

उसकी भी पण्ढ़रपुर जाने की प्रबल इच्छा हुई पर घरवालों से आज्ञा का मिलना असम्भव जान कर वह इस संत मण्डली के साथ चल दी।

यह बात एक पड़ोसिन ने उसकी सास को बता दी।

माँ के कहने पर पुत्र घसीटते हुए सखू को घर ले आया और उसे रस्सी से बाँध दिया,

परन्तु सखू का मन तो प्रभु के चरणों में ही लगा रहा।

वह प्रभु से रो-रोकर दिन-रात प्रार्थना करती रही, क्या मेरे नेत्र आपके दर्शन के बिना ही रह जायेंगे ?

कृपा करो नाथ ! मैंने अपने को तुम्हारे चरणों मे बाँधना चाहा था, परन्तु बीच में यह नया बंधन कैसे हो गया ?

मुझे मरने का डर नहीं है पर सिर्फ़ एक बार आपके दर्शन की इच्छा है।

मेरे तो माँ-बाप, भाई, इष्ट-मित्र सब कुछ आप ही हो , मैं भली-बुरी जैसी भी हूँ, तुम्हारी हूँ।

सच्ची पुकार को भगवान् अवश्य सुनते हैं और नकली प्रार्थना का जवाब नहीं देते।

असली पुकार चाहे धीमी हो, वह उनके कानों तक पहुँच जाती है।

सखू की पुकार को सुनकर भगवान् एक स्त्री का रूप धारण कर उसके पास आकर बोले-

मैं तेरी जगह बँध जाऊँगी, तू चिन्ता मत कर।

यह कहकर उन्होंने सखू के बंधन खोल दिये और उसे पण्ढ़रपुर पहुँचा दिया।

इधर सास-ससुर रोज़ उसके पास जाकर खरी-खोटी सुनाते, वे सब सह जाती।

जिनके नाम स्मरण मात्र से माया के दृढ़ बन्धन टूट जाते हैं, वे भक्त के लिए सारे बंधन स्वीकार करते हैं।

आज सखू बने भगवान् को बँधे दो हफ्ते हो गये

उसकी ऐसी दशा देखकर पति का हृदय पसीज गया। उसने सखू से क्षमा माँगी और स्नान कर भोजन के लिए कहा। आज प्रभु के हाथ का भेाजन कर सबके पाप धुल गये।

उधर सखू यह भूल गयी कि उसकी जगह दूसरी स्त्री बँधी है। उसका मन वहाँ ऐसा लगा कि उसने प्रतिज्ञा की कि शरीर में जब तक प्राण हैं, वह पण्ढ़रपुर में ही रहेगी।

प्रभु के ध्यान में उसकी समाधि लग गयी और शरीर अचेत हो ज़मीन पर गिर पड़ा। गाँव के लोगों ने उसका अंतिम संस्कार कर दिया

माता रुक्मिणी को चिन्ता हुई कि मेरे स्वामी सखू की जगह पर बहू बने हैं।

उन्होंने शमशान पहुँचकर सखू की अस्थियों को एकत्रित कर उसे जीवित किया और सब स्मरण कराकर करहड़ जाने की आज्ञा दी।

करहड़ पहुँचकर जब वह स्त्री बने प्रभु से मिली तो उसने क्षमा-याचना की।

जब घर पहुँची तो सास-ससुर के स्वभाव में परिवर्तन देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।

दूसरे दिन एक ब्राह्मण सखू के मरने का समा चार सुनाने करहड़ आया और सखू को काम करते देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।

उसने सखू के ससुर से कहा- ‘‘तुम्हारी बहू तो पण्ढ़रपुर में मर चुकी थी।

पति ने कहा- ’’सखू तो पण्ढ़रपुर गयी ही नहीं, तुम भूल से ऐसा कहते हो।

जब सखू से पूछा तो उसने सारी घटना सुना दी। सभी को अपने कुकृत्यों पर पश्चाताप हुआ।

अब सब कहने लगे कि निश्चित ही वे साक्षात् लक्ष्मीपति थे, हम बड़े ही नीच और भक्ति हीन हैं।

हमने उनको न पहचानकर व्यर्थ ही बाँधे रखा और उन्हें न मालूम कितने क्लेश दिये।

अब तीनों के हृदय शुद्ध हो चुके थे और उन्होंने सारा जीवन प्रभु भक्ति में लगा दिया।

प्रभु अपने भक्तों के लिए क्या कुछ नहीं करते।
......

बहुत छोटी सी कहानी

मैं एक गृह प्रवेश की पूजा में गया। पंडित जी पूजा करा रहे थे।

पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई। पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा।”

लोग चुटकियों से हवन सामग्री लेकर अग्नि में डाल देते। गृह मालिक को स्वाहा कहते ही अग्नि में घी डालने की ज़िम्मेदीरी सौंपी गई।

हर व्यक्ति थोड़ी सामग्री डालता, इस आशंका में कि कहीं हवन खत्म होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। गृह मालिक भी बूंद-बूंद घी डाल रहे थे। उनके मन में भी डर था कि घी खत्म न हो जाए।

मंत्रोच्चार चलता रहा, स्वाहा होता रहा और पूजा पूरी हो गई।
सबके पास बहुत सी हवन सामग्री बची रह गई। घी तो आधा से भी कम इस्तेमाल हुआ था।

हवन पूरा होने के बाद पंडित जी ने कहा कि आप लोगों के पास जितनी सामग्री बची है, उसे  अग्नि में डाल दें। गृह स्वामी से भी उन्होंने कहा कि आप इस घी को भी कुंड में डाल दें।

एक साथ बहुत सी हवन सामग्री अग्नि में डाल दी गई। सारा घी भी अग्नि के हवाले कर दिया गया। पूरा घर धुंए से भर गया। वहां बैठना मुश्किल हो गया।
एक-एक कर सभी कमरे से बाहर निकल गए।

अब जब तक सब कुछ जल नहीं जाता, कमरे में जाना संभव नहीं था।काफी देर तक इंतज़ार करना पडा, सब कुछ स्वाहा होने के इंतज़ार में।

मेरी कहानी यहीं रुक जाती है।

उस पूजा में मौजूद हर व्यक्ति जानता था कि जितनी हवन सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुंड में ही डालना है। पर सबने उसे बचाए रखा। सबने बचाए रखा कि आख़िर में सामग्री काम आएगी।

ऐसा ही हम करते हैं। यही हमारी फितरत है। हम अंत के लिए बहुत कुछ बचाए रखते हैं।

ज़िंदगी की पूजा खत्म हो जाती है और हवन सामग्री बची रह जाती है। हम बचाने में इतने खो जाते हैं कि जब सब कुछ होना हवन कुंड के हवाले है, उसे बचा कर क्या करना। बाद में तो वो सिर्फ धुंआ ही देगा।

संसार हवन कुंड है और जीवन पूजा। एक दिन सब कुछ हवन कुंड में समाहित होना है। अच्छी पूजा वही है, जिसमें हवन सामग्री का सही अनुपात में इस्तेमाल हो l

चन्दन का बाग

सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी पी कर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा― हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा, लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा। इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा―

मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था,

राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि- इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ ?

अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान (बाग) उसको सौंप दिया।

लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे, जीवन कट जाएगा।

यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा।

थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर बगीचा एक वीरान बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।

राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला।

उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है।

दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा।

राजा ने आते ही कहा― भाई ! यह तूने क्या किया ?

लकड़हारा बोला― आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया।

कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।

राजा मुस्कुराया और कहा― अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ।

लकड़हारे ने दो गज [ लगभग पौने दो मीटर ] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया।

लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीन सौ रुपये मिल गये, जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।

लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।

इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और हमारा एक-एक स्वास चन्दन के वृक्ष हैं पर अज्ञानता वश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं।

स्वजनों क्यूँ लोगों के साथ बैर, द्वेष, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, मनमुटाव, को लेकर खिंच-तान आदि की अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं।

जब अंत में स्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब आपको अहसास होगा कि व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हम दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे,

भक्तजनो  अभी भी देर नहीं हुई है हमारे पास जो भी चन्दन के पेड़ बचे है उन्ही से नए पेड़ बन सकते हैं।

स्वजनों आपसी प्रेम, सहायता, सौहार्द, शांति, भाईचारा, और विश्वास, के द्वारा अभी भी जीवन सँवारा जा सकता हैं।

✍लेख जन जागृति के लिए साझा अवश्य करें!

शुभ प्रभात।आज का दिन आपके लिये शुभ एवं मंगलमय हो।

ईश्वर भक्ति

ईश्वर की भक्ति हमे अद्भुत शक्ति देती हैं क्योकि हमारे मन के विकार दूर हो जाते हैं और मन शांत और सरल हो जाता हैं। हम अपने समय और धन को अच्छे कार्यो में लगाते हैं जिससे हमे जीवन में सफलता और ख़ुशी मिलती हैं।ईश्वर इस जगत के कण-कण में हैं, वो सदा हमारे पास, हमारे साथ दुःख-सुख में रहते हैं।जब भी आपके मन में बुरे ख्याल या किसी के प्रति घृणा आ रहा हो तो अपने मन को ईश्वर की चरणों में लगाएँ।ऐसे विकार केवल ईश्वर के मनन से ही दूर हो जाता हैं और आप अपनी शक्ति और समय का उपयोग किसी अच्छे कार्य की लिए कर सकते है

✍🏻भगवान के बारे मे  कुछ  किताबे  पढ़ने  से या किसी गुरू के आशीर्वाद से ईश्वर और उनकी महिमा को नही समझा जा सकता हैं, यह केवल एक अनुभूति होती हैं जिसे शब्दों में बयाँ नही किया जा सकता हैं। इसे आपको को खुद अनुभव करना पड़ता हैं।

✍🏻भगवान से कुछ माँगने पर न मिले तो उनसे नाराज मत होना क्योकि भगवान वह नही देते जो आपको अच्छा लगता हो बल्कि वह देते हैं जो आपके लिए अच्छा होता हैं। 


✍🏻ईश्वर पर आप तभी विश्वास कर सकते हैं जब आपको खुद पर विश्वास हो क्योकि ईश्वर बाहर नही हमारे अंदर ही हैं। 


✍🏻सच्चा प्यार और ईश्वर एक तरह होते हैं मिल जाने पर और कोई ख्वाहिश नही रहती हैं। 


✍🏻स्वर्ग और नर्क सिर्फ हमारे दिमाग में हैं, मनुष्य अपने कर्मो का फल इसी पृथ्वी पर पाता हैं। 


✍🏻कर्म में विश्वास करना, खुद पर विश्वास करना और खुद पर विश्वास करना ईश्वर पर विश्वास करना होता हैं। 


✍🏻माता-पिता की सेवा ईश्वर की सेवा के बराबर होता हैं।
✍🏻ईश्वर के प्रति भक्ति भाव रखना और अच्छे कार्य को करना हमे मानसिक शांति देता हैं। 


✍🏻यदि आप यह मानते है कि आपके अंदर ईश्वर का अंश है तो आप किसी भी असम्भव कार्य को कर सकते हैं। 


✍🏻प्रकृति से प्रेम करना ईश्वर से प्रेम करने के बराबर होते हैं, यही ईश्वर का सच्चा रूप हैं। 


✍🏻मौन प्रार्थनाएँ जल्दी पहुँचती हैं भगवान् तक क्योकि ये शब्दों के बोझ से मुक्त होती हैं। 


✍🏻सुख में धर्म कार्य और दूसरो की मदद जरूर करनी चाहिए क्योकि बुरे समय में यही काम आता हैं। 


✍🏻जब आप एकदम अकेला महसूस करते हैं तब भी आपके साथ ईश्वर होते हैं। 


✍🏻स्वर्ग की कामना रखने वाले लोग कभी मोक्ष नही प्राप्त कर सकते हैं। 


✍🏻भगवान के अस्तित्व को मानने से आत्मबल मिलता हैं।
ईश्वर भक्ति से मन के विकार समाप्त हो जाते हैं और हम भगवान की समीप पहुँच जाते हैं। ✍🏻जब तक आप स्वयं पर विश्वास नही करते, तब तक आप ईश्वर पर भी विश्वास नही कर सकते हैं। 


✍🏻कर्म का अधिकार मनुष्य के पास है लेकिन फल ईश्वर देते हैं, इसलिए कर्म को सच्चे मन से करना चाहिए क्योकि मनुष्य के जीवन में उसके कर्मो का फल ही घटित होता हैं। 


✍🏻जब ईश्वर मनुष्य की परीक्षा लेते हैं तब वो मनुष्य का सामर्थ्य भी बढ़ा देते हैं ताकि वो अधिक बुद्धिमान और अधिक ताकतवर बनें। 


✍🏻अगर आपकी समस्या एक जहाज जितनी बड़ी है तो यह नही भूलना चाहिए कि भगवान की कृपा सागर जितनी विशाल हैं। 


✍🏻सच्चा प्रेम और भगवान एक जैसे ही होते हैं जिसके बारें में बातें सब करते हैं लेकिन महसूस बहुत कम ही लोग करते हैं। 


✍🏻जिसका मन सच्चा और कर्म अच्छा हैं वही भगवान का सच्चा भक्त हैं और ऐसे लोगो पर ईश्वर की कृपा हमेशा बनी रहती हैं। 


✍🏻भगवान न दिखाई देने वाले माता-पिता हैं और माता-पिता दिखाई देने वाले भगवान् हैं। 


✍🏻ईश्वर का सन्देश – सोने से पहले तुम सबको माफ़ कर दिया करो और तुम्हारे जागने से पहले मैं तुम्हें माफ़ कर दूँगा। 


✍🏻जब हम गेहूँ का एक दाना बोते हैं तो कुछ समय पश्चात वो हमे हजार दाने के रूप में मिलता हैं उसी तरह हमारे अच्छे कर्मो का फल हमें ईश्वर भी देता हैं। 


✍🏻मेरे और भगवान के बीच में बहुत ही ख़ूबसूरत रिश्ता हैं, मैं ज्यादा माँगता नही और वे कम देते नही हैं। 


✍🏻पूरी दुनिया में ढूढ़ने के बाद भी नही मिलता हैं वही माया हैं और जो एक जगह पर बैठे ही मिल जाए वही परमात्मा हैं। 


✍🏻भगवान का भक्त होने का मतलब यह नही कि आप कभी भी गिरेंगे नही, पर जब आप गिरेंगे तो भगवान आपकी स्वयं थाम लेंगे। 


✍🏻यदि आपके पास सिर्फ भगवान हैं तो आपके पास वह सब हैं जो आपको चाहिए। 


✍🏻हे भगवान, सुख देना तो बस इतना देना कि जिसमें अहंकार न आये और दुःख देना तो बस इतना कि जिसमें आस्था ना टूटे।


✍🏻वो तैराक भी डूब जाते हैं जिनको ख़ुद पर गुमान होता हैं और वो गँवार भी डूबते-डूबते पार हो जाते हैं जिनपर भगवान मेहरबान होते हैं।
✍🏻सच्चे मन से ही की गई प्रार्थना भगवान तक पहुँचती हैं। 


✍🏻श्रद्धा का मतलब हैं आत्मविश्वास और आत्मविश्वास का मतलब हैं ईश्वर में विश्वास। 


✍🏻जो मनुष्य जीवन में सत्य के मार्ग पर चलता हैं, उसका सफ़र ईश्वर के पास आके ही समाप्त होता हैं।

सतसंग बड़ा है या तप

एक बार महर्षि वशिष्ठजी और विश्वामित्रजी में बहस छिड़ गयी की सत्संग की महिमा बड़ी है या तप की महिमा। वशिष्ठजी का कहना था सत्संग की महिमा बड़ी है तथा विश्वामित्रजी का कहना था कि तप का महात्म्य बड़ा है

जब फैसला न हो सका तो दोनों विष्णु भगवान के पास पहुंचे और अपनी अपनी बात कही। विष्णु भगवान ने सोचा की दोनों ही महर्षि है और दोनों ही अपनी-अपन हैं

श्री हरि ने कहा कि इसका सही उत्तर तो एक लिंगनाथजी ही दे सकते है। अतः दोनों कैलाश पर शंकर भगवान के पास पहुंचे। शंकरजी के सामने भी यही समस्या आई। उन्होंने कहा कि मेरे मस्तक पर इस समय जटाजूट का भार है, अतः मैं सही निर्णय नहीं कर पाउँगा। आप भगवान शेषनाग के पास जाये वो ही सही फैसला कर सकेंगे

दोनों महर्षि शेषनाग के पास पहुंचे और अपनी बात उनसे कही, शेषनागजी ने कहा कि ऋषिवर! मेरे सिर पर धरती का भार है। आप थोड़ी देर के लिए मेरे सिर से धरती को हटा दे तो में फैसला कर दूँ

विश्वामित्रजी ने कहा कि धरती माता! तुम शेषनागजी के सर से थोड़ी देर के लिए अलग हो जाओ, मैं अपने तप का चौथाई फल आपको देता हूँ। पृथ्वी में कोई हलचल नहीं हुई तो फिर उन्होंने कहा कि तप का आधा फल समर्पित करता हूँ

इतना कहने पर भी धरती हिली तक नहीं। अंत में उन्होंने कहा कि में अपने सम्पूर्ण जीवन के तप का फल तुम्हे देता हूँ। धरती थोड़ी हिली, हलचल हुई फिर स्थिर हो गयी

अब वशिष्ठजी की बारी आई। उन्होंने कहा कि धरती माता! अपने सत्संग का निमिष मात्र फल देता हूँ, तुम शेषनाग के मस्तक से हट जाओ

धरती हिली, गर्जन हुआ और वो सर से उतरकर अलग खड़ी हो गई, शेषनागजी ने ऋषियों से कहा कि आप लोग स्वयं ही फेसला करले कि सत्संग बड़ा है या तप

इसलिये कहा गया है
जिसको जीवन मे मिला सत्संग है
उसे हर घडी आनन्द ही आनन्द है

सोया भाग्य

एक व्यक्ति जीवन से हर प्रकार से निराश था । लोग उसे मनहूस के नाम से बुलाते थे

एक ज्ञानी पंडित ने उसे बताया कि तेरा भाग्य फलां पर्वत पर सोया हुआ है , तू उसे जाकर जगा ले तो भाग्य तेरे साथ हो जाएगा
बस ! फिर क्या था वो चल पड़ा अपना सोया भाग्य जगाने
रास्ते में जंगल पड़ा तो एक शेर उसे खाने को लपका , वो बोला भाई ! मुझे मत खाओ , मैं अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा हूँ
शेर ने कहा कि तुम्हारा भाग्य जाग जाये तो मेरी एक समस्या है , उसका समाधान पूछते लाना


मेरी समस्या ये है कि मैं कितना भी खाऊं …मेरा पेट भरता ही नहीं है , हर समय पेट भूख की ज्वाला से जलता रहता है..मनहूस ने कहा– ठीक है
आगे जाने पर एक किसान के घर उसने रात बिताई । बातों – बातों में पता चलने पर कि वो अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा है


किसान ने कहा कि मेरा भी एक सवाल है .. अपने भाग्य से पूछकर उसका समाधान लेते आन...


मेरे खेत में,मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ पैदावार अच्छी होती ही नहीं ।मेरी शादी योग्य एक कन्या है, उसका विवाह इन परिस्थितियों में मैं कैसे कर
पाऊंगा ?*


मनहूस बोला — ठीक है । और आगे जाने पर वो एक राजा के घर मेहमान बना । रात्री भोज के उपरान्त राजा ने ये जानने पर कि वो अपने भाग्य को जगाने जा रहा है , उससे कहा कि मेरी परेशानी का हल भी अपने भाग्य से पूछते आना


मेरी परेशानी ये है कि कितनी भी समझदारी से राज्य चलाऊं… मेरे राज्य में अराजकता का बोलबाला ही बना रहता है


मनहूस ने उससे भी कहा — ठीक है । अब वो पर्वत के पास पहुँच चुका था । वहां पर उसने अपने सोये भाग्य को झिंझोड़ कर जगाया— उठो ! उठो ! मैं तुम्हें जगाने आया हूँ


उसके भाग्य ने एक अंगडाई ली और उसके साथ चल दिया । उसका भाग्य बोला — अब मैं तुम्हारे साथ हरदम रहूँगा।


अब वो मनहूस न रह गया था बल्कि भाग्य शाली व्यक्ति बन गया था और अपने भाग्य की बदौलत वो सारे सवालों के जवाब जानता था।


वापसी यात्रा में वो उसी राजा का मेहमान बना और राजा की परेशानी का हल बताते हुए वो बोला चूँकि तुम एक स्त्री हो और पुरुष वेश में रहकर राज – काज संभालती हो , इसीलिए राज्य में अराजकता का बोल बाला है
तुम किसी योग्य पुरुष के साथ विवाह कर लो , दोनों मिलकर राज्य का भार संभालो तो तुम्हारे राज्य में शांति स्थापित हो जाएगी


रानी बोली — तुम्हीं मुझ से ब्याह कर लो और यहीं रह जाओ। भाग्य शाली बन चुका वो मनहूस इन्कार करते हुए बोला

नहीं नहीं ! मेरा तो भाग्य जाग चुका है । तुम किसी और से विवाह कर लो
तब रानी ने अपने मंत्री से विवाह किया और सुखपूर्वक राज्य चलाने लगी |
कुछ दिन राजकीय मेहमान बनने के बाद उसने वहां से विदा ली।
चलते चलते वो किसान के घर पहुंचा और उसके सवाल के जवाब में बताया कि तुम्हारे खेत में सात कलश हीरे जवाहरात के गड़े हैं
उस खजाने को निकाल लेने पर तुम्हारी जमीन उपजाऊ हो जाएगी और उस धन से तुम अपनी बेटी का ब्याह भी धूमधाम से कर सकोगे।
किसान ने अनुग्रहित होते हुए उससे कहा कि मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ , तुम ही मेरी बेटी के साथ ब्याह कर लो


पर भाग्य शाली बन चुका वह व्यक्ति बोला कि नहीं ! नहीं ! मेरा तो भाग्योदय हो चुका है , तुम कहीं और अपनी सुन्दर कन्या का विवाह करो।
किसान ने उचित वर देखकर अपनी कन्या का विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा।


कुछ दिन किसान की मेहमान नवाजी भोगने के बाद वो जंगल में पहुंचा और शेर से उसकी समस्या के समाधान स्वरुप कहा कि यदि तुम किसी बड़े मूर्ख को खा लोगे तो तुम्हारी ये क्षुधा शांत हो जाएगी


शेर ने उसकी बड़ी आवभगत की और यात्रा का पूरा हाल जाना
सारी बात पता चलने के बाद शेर ने कहा कि भाग्योदय होने के बाद इतने अच्छे और बड़े दो मौके गंवाने वाले ऐ इंसान! तुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा ? तुझे खाकर ही मेरी भूख शांत होगी..और इस तरह वो इंसान शेर का शिकार बनकर मृत्यु को प्राप्त हुआ


यदि आपके पास सही मौका परखने का विवेक और अवसर को पकड़ लेने का ज्ञान नहीं है तो भाग्य भी आपके साथ आकर आपका कुछ भला नहीं कर सकता है|🙏🙏🙏🙏

काल से मित्रता - एक बार अवश्य पढे

एक चतुर व्यक्ति को काल से बहुत डर लगता था. एक दिन उसे चतुराई सूझी और काल को अपना मित्र बना लिया

उसने अपने मित्र काल से कहा- मित्र, तुम किसी को भी नहीं छोड़ते हो, किसी दिन मुझे भी गाल में धर लोगे।

काल ने कहा- ये मृत्यु लोक है. जो आया है उसे मरना ही है. सृष्टि का यह शाश्वत नियम है इस लिए मैं मजबूर हूं. पर तुम मित्र हो इसलिए मैं जितनी रियायत कर सकता हूं, करूंगा ही. मुझ से क्या आशा रखते हो साफ-साफ कहो।

व्यक्ति ने कहा- मित्र मैं इतना ही चाहता हूं कि आप मुझे अपने लोक ले जाने के लिए आने से कुछ दिन पहले एक पत्र अवश्य लिख देना ताकि मैं अपने बाल- बच्चों को कारोबार की सभी बातें अच्छी तरह से समझा दूं और स्वयं भी भगवान भजन में लग जाऊं।

काल ने प्रेम से कहा- यह कौन सी बड़ी बात है, मैं एक नहीं आपको चार पत्र भेज दूंगा. चिंता मत करो. चारों पत्रों के बीच समय भी अच्छा खासा दूंगा ताकि तुम सचेत होकर काम निपटा लो।

मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ सोचने लगा कि आज से मेरे मन से काल का भय भी निकल गया, मैं जाने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण करके जाऊंगा तो देवता भी मेरा स्वागत करेंगे।

दिन बीतते गये आखिर मृत्यु की घड़ी आ पहुंची. काल अपने दूतों सहित उसके समीप आकर बोला- मित्र अब समय पूरा हुआ. मेरे साथ चलिए. मैं सत्यता और दृढ़तापूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए एक क्षण भी तुम्हें और यहां नहीं छोड़ूंगा।

मनुष्य के माथे पर बल पड़ गए, भृकुटी तन गयी और कहने लगा- धिक्कार है तुम्हारे जैसे मित्रों पर. मेरे साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती?

तुमने मुझे वचन दिया था कि लेने आने से पहले पत्र लिखूंगा. मुझे बड़ा दुःख है कि तुम बिना किसी सूचना के अचानक दूतों सहित मेरे ऊपर चढ़ आए. मित्रता तो दूर रही तुमने अपने वचनों को भी नहीं निभाया।

काल हंसा और बोला- मित्र इतना झूठ तो न बोलो. मेरे सामने ही मुझे झूठा सिद्ध कर रहे हो. मैंने आपको एक नहीं चार पत्र भेजे. आपने एक भी उत्तर नहीं दिया।

मनुष्य ने चौंककर पूछा – कौन से पत्र? कोई प्रमाण है? मुझे पत्र प्राप्त होने की कोई डाक रसीद आपके पास है तो दिखाओ।

काल ने कहा – मित्र, घबराओ नहीं, मेरे चारों पत्र इस समय आपके पास मौजूद हैं।

मेरा पहला पत्र आपके सिर पर चढ़कर बोला, आपके काले सुन्दर बालों को पकड़ कर उन्हें सफ़ेद कर दिया और यह भी कहा कि सावधान हो जाओ, जो करना है कर डालो।

नाम, बड़ाई और धन-संग्रह के झंझटो को छोड़कर भजन में लग जाओ पर मेरे पत्र का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ।

बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और पुनः जवान बनने के सपनों में खो गए. आज तक मेरे श्वेत अक्षर आपके सिर पर लिखे हुए हैं।

कुछ दिन बाद मैंने दूसरा पत्र आपके नेत्रों के प्रति भेजा. नेत्रों की ज्योति मंद होने लगी।

फिर भी आंखों पर मोटे शीशे चढ़ा कर आप जगत को देखने का प्रयत्न करने लगे. दो मिनिट भी संसार की ओर से आंखे बंद करके, ज्योतिस्वरूप प्रभु का ध्यान मन में नहीं किया।

इतने पर भी सावधान नहीं हुए तो मुझे आपकी दीनदशा पर बहुत तरस आया और मित्रता के नाते मैंने तीसरा पत्र भी भेजा।

इस पत्र ने आपके दांतो को छुआ, हिलाया और तोड़ दिया।

आपने इस पत्र का भी जवाब न दिया बल्कि नकली दांत लगवाये और जबरदस्ती संसार के भौतिक पदार्थों का स्वाद लेने लगे।

मुझे बहुत दुःख हुआ कि मैं सदा इसके भले की सोचता हूँ और यह हर बात एक नया, बनावटी रास्ता अपनाने को तैयार रहता है।

अपने अन्तिम पत्र के रूप में मैंने रोग- क्लेश तथा पीड़ाओ को भेजा परन्तु आपने अहंकार वश सब अनसुना कर दिया।

जब मनुष्य ने काल के भेजे हुए पत्रों को समझा तो फूट-फूट कर रोने लगा और अपने विपरीत कर्मो पर पश्चाताप करने लगा. उसने स्वीकार किया कि मैंने गफलत में शुभ चेतावनी भरे इन पत्रों को नहीं पढ़ा।

मैं सदा यही सोचता रहा कि कल से भगवान का भजन करूंगा. अपनी कमाई अच्छे शुभ कार्यो में लगाऊंगा, पर वह कल नहीं आया।

काल ने कहा – आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग-रंग, स्वार्थ और भोगों के लिए किया. जान-बूझकर ईश्वरीय नियमों को तोड़कर जो काम करता है, वह अक्षम्य है।

मनुष्य को जब अपनी बातों से काम बनता नज़र नहीं आया तो उसने काल को करोड़ों की सम्पत्ति का लोभ दिखाया।

काल ने हंसकर कहा- मित्र यह मेरे लिए धूल से अधिक कुछ भी नहीं है. धन-दौलत, शोहरत, सत्ता, ये सब लोभ संसारी लोगो को वश में कर सकता है, मुझे नहीं।

मनुष्य ने पूछा- क्या कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तुम्हें भी प्रिय हो, जिससे तुम्हें लुभाया जा सके. ऐसा कैसे हो सकता है!

काल ने उत्तर दिया- यदि तुम मुझे लुभाना ही चाहते थे तो सच्चाई और शुभ कर्मो का धन संग्रह करते. यह ऐसा धन है जिसके आगे मैं विवश हो सकता था. अपने निर्णय पर पुनर्विचार को बाध्य हो सकता था. पर तुम्हारे पास तो यह धन धेले भर का भी नहीं है।

तुम्हारे ये सारे रूपए-पैसे, जमीन-जायदाद, तिजोरी में जमा धन-संपत्ति सब यहीं छूट जाएगा. मेरे साथ तुम भी उसी प्रकार निवस्त्र जाओगे जैसे कोई भिखारी की आत्मा जाती है।

काल ने जब मनुष्य की एक भी बात नहीं सुनी तो वह हाय-हाय करके रोने लगा।

सभी सम्बन्धियों को पुकारा परन्तु काल ने उसके प्राण पकड़ लिए और चल पड़ा अपने गन्तव्य की ओर।

काल ने कितनी बड़ी बात कही. एक ही सत्य है जो अटल है वह है कि हम एक दिन मरेेंगे जरूर. हम जीवन में कितनी दौलत जमा करेंगे, कितनी शोहरत पाएंगे, कैसी संतान होगी यह सब अनिश्चित होता है, समय के गर्भ में छुपा होता है।

परंतु हम मरेगे एक दिन बस यही एक ही बात जन्म के साथ ही तय हो जाती है. ध्रुव सत्य है मृ्त्यु. काल कभी भी दस्तक दे सकता है. प्रतिदिन उसकी तैयारी करनी होगी।

समय के साथ उम्र की निशानियों को देख कर तो कम से कम हमें प्रभु की याद में रहने का अभ्यास करना चाहिए और अभी तो कलयुग का अन्तिम समय है इस में तो हर एक को चाहे छोटा हो या बड़ा सब को प्रभु की याद में रहकर ही कर्म करने हैं।
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अनजाने कर्म का फल

एक राजा ब्राह्मणों को लंगर में महल के आँगन में भोजन करा रहा था ।
राजा का रसोईया खुले आँगन में भोजन पका रहा था ।
उसी समय एक चील अपने पंजे में एक जिंदा साँप को लेकर राजा के महल के ऊपर से गुजरी ।
तब पंजों में दबे साँप ने अपनी आत्म-रक्षा में चील से बचने के लिए अपने फन से ज़हर निकाला ।
तब रसोईया जो लंगर ब्राह्मणो के लिए पका रहा था, उस लंगर में साँप के मुख से निकली जहर की कुछ बूँदें खाने में गिर गई ।
किसी को कुछ पता नहीं चला ।
फल-स्वरूप वह ब्राह्मण जो भोजन करने आये थे उन सब की जहरीला खाना खाते ही मृत्यु हो गयी ।
अब जब राजा को सारे ब्राह्मणों की मृत्यु का पता चला तो ब्रह्म-हत्या होने से उसे बहुत दुख हुआ ।

ऐसे में अब ऊपर बैठे यमराज के लिए भी यह फैसला लेना मुश्किल हो गया कि इस पाप-कर्म का फल किसके खाते में जायेगा।

(1) राजा .... जिसको पता ही नहीं था कि खाना जहरीला हो गया है ....
या
(2 ) रसोईया .... जिसको पता ही नहीं था कि खाना बनाते समय वह जहरीला हो गया है ....
या
(3) वह चील .... जो जहरीला साँप लिए राजा के ऊपर से गुजरी ....
या
(4) वह साँप .... जिसने अपनी आत्म-रक्षा में ज़हर निकाला

बहुत दिनों तक यह मामला यमराज की फाईल में अटका (Pending) रहा।

फिर कुछ समय बाद कुछ ब्राह्मण राजा से मिलने उस राज्य मे आए और उन्होंने किसी महिला से महल का रास्ता पूछा।
उस महिला ने महल का रास्ता तो बता दिया पर रास्ता बताने के साथ-साथ ब्राह्मणों से ये भी कह दिया कि देखो भाई जरा ध्यान रखना वह राजा आप जैसे ब्राह्मणों को खाने में जहर देकर मार देता है।

बस जैसे ही उस महिला ने ये शब्द कहे, उसी समय यमराज ने फैसला (decision) ले लिया कि उन मृत ब्राह्मणों की मृत्यु के पाप का फल इस महिला के खाते में जाएगा और इसे उस पाप का फल भुगतना होगा ।

यमराज के दूतों ने पूछा - प्रभु ऐसा क्यों ??
जब कि उन मृत ब्राह्मणों की हत्या में उस महिला की कोई भूमिका (role) भी नहीं थी ।
तब यमराज ने कहा - कि भाई देखो, जब कोई व्यक्ति पाप करता हैं तब उसे बड़ा आनन्द मिलता हैं। पर उन मृत ब्राह्मणों की हत्या से ना तो राजा को आनंद मिला ना उस रसोइया को आनंद मिला। ना उस साँप को आनंद मिला। और ना ही उस चील को आनन्द मिला।
पर उस पाप-कर्म की घटना की सत्यता परखे बिना बुराई करने के भाव से बखान कर उस महिला को जरूर आनन्द मिला।

 इसलिये राजा के उस अनजाने पाप-कर्म का फल अब इस महिला के खाते में जायेगा ।

बस इसी घटना के तहत आज तक जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे के ऊपर इंगित पाप-कर्म की सत्यता बुरे भाव से आनन्द के लिए करता है तब उस व्यक्ति के पापों का ३/४ हिस्सा उस बुराई करने वाले के खाते में भी डाल दिया जाता हैं।

अक्सर हम जीवन में सोचते हैं कि हमने जीवन में ऐसा कोई पाप नहीं किया, फिर भी हमारे जीवन में इतना कष्ट क्यों आया ?

ये कष्ट और कहीं से नहीं, बल्कि लोगों की बुराई करने के कारण उनके पाप-कर्मो से आया होता हैं जो बुराई करते ही हमारे खाते में ट्रांसफर हो जाता हैं।

जब प्रभु श्री राम जी की परीक्षा ली भोलेनाथ जी ने

श्रीराम का वनवास ख़त्म हो चुका था। एक बार श्रीराम ब्राम्हणों को भोजन करा रहे थे तभी भगवान शिव ब्राम्हण वेश में वहाँ आये।

श्रीराम ने लक्ष्मण और हनुमान सहित उनका स्वागत किया और उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया. भगवान शिव भोजन करने बैठे किन्तु उनकी क्षुधा को कौन बुझा सकता था ?

बात हीं बात में श्रीराम का सारा भण्डार खाली हो गया. लक्ष्मण और हनुमान ये देख कर चिंतित हो गए और आश्चर्य से भर गए. एक ब्राम्हण उनके द्वार से भूखे पेट लौट जाये ये तो बड़े अपमान की बात थी।

उन्होंने श्रीराम से और भोजन बनवाने की आज्ञा मांगी. श्रीराम तो सब कुछ जानते हीं थे, उन्होंने मुस्कुराते हुए लक्ष्मण से देवी सीता को बुला लाने के लिए कहा।

सीता जी वहाँ आयी और ब्राम्हण वेश में बैठे भगवान शिव का अभिवादन किया. श्रीराम ने मुस्कुराते हुए सीता जी को सारी बातें बताई और उन्हें इस परिस्थिति का समाधान करने को कहा।

सीता जी अब स्वयं महादेव को भोजन कराने को उद्धत हुई. उनके हाथ का पहला ग्रास खाते हीं भगवान शिव संतुष्ट हो गए।
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भोजन के उपरान्त भगवान शिव ने श्रीराम से कहा कि आकण्ठ भोजन करने के कारण वे स्वयं उठने में असमर्थ हैं इसी कारण कोई उन्हें उठा कर शैय्या पर सुला दे।

श्रीराम की आज्ञा से हनुमान महादेव को उठाने लगे मगर आश्चर्य, एक विशाल पर्वत को बात हीं बात में उखाड़ देने वाले हनुमान, जिनके बल का कोई पार हीं नहीं था, महादेव को हिला तक नहीं सके. भला रुद्रावतार रूद्र की शक्ति से कैसे पार पा सकते थे ? हनुमान लज्जित हो पीछे हट गए।

फिर श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ये कार्य करने को आये. अब तक वो ये समझ चुके थे कि ये कोई साधारण ब्राम्हण नहीं हैं. अनंत की शक्ति भी अनंत हीं थी. परमपिता ब्रम्हा, नारायण और महादेव का स्मरण करते हुए लक्ष्मण ने उन्हें उठा कर शैय्या पर लिटा दिया।

लेटने के बाद भगवान शिव ने श्रीराम से सेवा करने को कहा. स्वयं श्रीराम लक्ष्मण और हनुमान के साथ भगवान शिव की पाद सेवा करने लगे।

देवी सीता ने महादेव को पीने के लिए जल दिया. महादेव ने आधा जल पिया और बांकी जल  देवी सीता पर फेंक दिया।

देवी सीता ने हाथ जोड़ कर कहा कि हे ब्राम्हणदेव, आपने अपने जूठन से मुझे पवित्र कर दिया. ऐसा सौभाग्य तो बिरलों को प्राप्त होता है।

ये कहते हुए देवी सीता उनके चरण स्पर्श करने बढ़ी, तभी महादेव उपने असली स्वरुप में आ गए. महाकाल के दर्शन होते हीं सभी ने करबद्ध हो उन्हें नमन किया।

भगवान शिव ने श्रीराम को अपने ह्रदय से लगते हुए कहा कि आप सभी मेरी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। ऐसे कई अवसर थे जब किसी भी मनुष्य को क्रोध आ सकता था किन्तु आपने अपना संयम नहीं खोया. इसी कारण संसार आपको मर्यादा पुरुषोत्तम कहता है।

उन्होंने श्रीराम को वरदान मांगने को कहा किन्तु श्रीराम ने हाथ जोड़ कर कहा कि आपके आशीर्वाद से मेरे पास सब कुछ है. अगर आप कुछ देना हीं चाहते हैं तो अपने चरणों में सदा की भक्ति का आशीर्वाद दीजिये।

महादेव ने मुस्कुराते हुए कहा कि आप और मैं कोई अलग नहीं हैं किन्तु फिर भी देवी सीता ने मुझे भोजन करवाया है इसीलिए उन्हें कोई वरदान तो माँगना हीं होगा।

देवी सीता ने कहा कि हे भगवान, अगर आप हमसे प्रसन्न हैं तो कुछ काल तक आप हमारे राजसभा में कथावाचक बनकर रहें. उसके बाद कुछ काल तक भगवान शिव श्रीराम की सभा में कथा सुना कर सबको कृतार्थ करते रहे ।

जय जय सियाराम जी

जो चाहोगे सो पाओगे

✍🏻प्रेरक,✍🏻

एक साधु थे, वह रोज घाट के किनारे बैठ कर चिल्लाया करता था,”जो चाहोगे सो पाओगे”, जो चाहोगे सो पाओगे। बहुत से लोग वहाँ से गुजरते थे पर कोई भी उसकी बात पर ध्यान नहीँ देता था और सब उसे एक पागल आदमी समझते थे। 


          ✍🏻🥀  एक दिन एक युवक वहाँ से गुजरा और उसनेँ उस साधु की आवाज सुनी , “जो चाहोगे सो पाओगे”, जो चाहोगे सो पाओगे।” और आवाज सुनते ही उसके पास चला गया।


             ✍🏻🥀उसने साधु से पूछा -“महाराज आप बोल रहे थे कि ‘जो चाहोगे सो पाओगे’ तो क्या आप मुझको वो दे सकते हो जो मैँ जो चाहता हूँ?”


           ✍🏻🥀   साधु उसकी बात को सुनकर बोला कि हाँ बेटा तुम जो कुछ भी चाहता है मैँ उसे जरुर दुँगा, बस तुम्हे मेरी बात माननी होगी। लेकिन पहले ये तो बताओ कि तुम्हे आखिर चाहिये क्या?


           ✍🏻🥀   युवक बोला कि मेरी एक ही ख्वाहिश है मैँ हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनना चाहता हूँ। तब साधू बोला कि कोई बात नहीँ मैँ तुम्हे एक हीरा और एक मोती देता हूँ, उससे तुम जितने भी हीरे मोती बनाना चाहोगे बना पाओगे !


               ✍🏻🥀और ऐसा कहते हुए साधु ने अपना हाथ आदमी की हथेली पर रखते हुए कहा कि पुत्र , मैं तुम्हे दुनिया का सबसे अनमोल हीरा दे रहा हूं, लोग इसे समय कहते हैं, इसे तेजी से अपनी मुट्ठी में पकड़ लो और इसे कभी मत गंवाना, तुम इससे जितने चाहो उतने हीरे बना सकते हो। 


              ✍🏻🥀 युवक अभी कुछ सोच ही रहा था कि साधु उसका दूसरी हथेली , पकड़ते हुए बोला कि पुत्र , इसे पकड़ो , यह दुनिया का सबसे कीमती मोती है , लोग इसे धैर्य  कहते हैं , जब कभी समय देने के बावजूद परिणाम ना मिलें तो इस कीमती मोती को धारण कर लेना , याद रखना जिसके पास यह मोती है, वह दुनिया में कुछ भी प्राप्त कर सकता है।


            ✍🏻🥀  युवक गम्भीरता से साधु की बातों पर विचार करता है और निश्चय करता है कि आज से वह कभी अपना समय बर्वाद नहीं करेगा और हमेशा धैर्य से काम लेगा और ऐसा सोचकर वह हीरों के एक बहुत बड़े व्यापारी के यहाँ काम शुरू करता है और अपने मेहनत और ईमानदारी के बल पर एक दिन खुद भी हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनता है।


             ‘समय’ ✍🏻और ‘धैर्य’ ✍🏻वह दो हीरे-मोती हैं जिनके बल पर हम बड़े से बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। अतः ज़रूरी है कि हम अपने कीमती समय को बर्वाद ना करें और अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए धैर्य से काम ले

दुःख-निवृत्ति का केवल एक ही मार्ग हैं

दुःख का अनुभव सब करते हैं, पर उसका वास्तविक कारण जानने की इच्छा किसी किसी को ही होती हैं। दुखी होने से −चिन्तित और निराश रहने से-दुःख की निवृत्ति नहीं हो सकती। वह तो तभी संभव है जब उसके मूल कारण को जान कर उसके निवारण का प्रयत्न किया जाय। यह संसार दुःख रूप ही हैं। इसमें जितनी भी वस्तुएँ हैं वे सब क्षणिक और अस्थिर हैं। क्षण क्षण में उनका रूप बदलता हैं। जो वस्तु अभी प्रिय दीखती हैं, कुछ कारण उत्पन्न होने पर थोड़ी ही देर में वह अप्रिय बन जाती हैं। कामनाओं और वासनाओं का भी यही हाल हैं। एक तृप्त नहीं हो पाई कि दूसरी नई उपज पड़ी। तृष्णाओं का कहीं अन्त नहीं, वासनाओं की कोई सीमा नहीं। भोग से-संग्रह से-उन्हें किसने शान्त कर पाया हैं? घी डाल कर किसने आग बुझाई हैं? बहुमुखी जीवन से मुख मोड़कर अन्तर्मुखी दृष्टि अपनाये बिना आज तक किसी को शान्ति नहीं मिली। हमारे लिए भी इसके अतिरिक्त और कोई उपाय या मार्ग नहीं हैं।
- भगवान बुद्ध

ऑस्ट्रेलिया में गोबर्धन पूजा करते वँहा के स्थानीय लोग

एक जानकारी के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदू धर्म सबसे तेजी से बढ़ने वाला धर्म है. ऑस्ट्रेलिया में इस्लाम की तरफ आकर्षित होने वालों की संख्या वहां की कुल आबादी की 2.2 फीसदी से लेकर 2.6 फीसदी के करीब बताई जाती है, वहीं हिंदू धर्म की ओर आकर्षित होने वालों की संख्या इससे ज्यादा 2.7 फीसदी है. दुनिया के तीसरे सबसे बड़े धर्म के प्रति ऑस्ट्रेलियाई लोगों में आस्था बढ़ रही है.

 एक रिसर्च के अनुसार मेलबर्न में इस्कॉन मंदिर के अलावा भी कई मंदिर हैं जो आस्था का केंद्र बने हुए हैं. एक आंकड़े के मुताबिक पूरे ऑस्ट्रेलिया में भगवान गणेश, श्रीकृष्ण, माता दुर्गा, हनुमान जी  के 51 हिंदू मंदिर हैं. इनमें से 19 मंदिर विक्टोरिया में हैं. मेलबर्न के कैरम डाउन इलाके में शिव-विष्णु मंदिर ऑस्ट्रेलिया का सबसे पुराना और बड़ा मंदिर है. इसकी बुनियाद 1988 में रखी गई थी. ये मंदिर करीब 6 एकड़ में फैला है और यहां हर साल लाखों लोग दर्शन के लिए आते हैं.

आपकी जानकारी के लिए बता दे कि ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न जैसे बड़े शहर में रथयात्रा और जन्माष्टमी जैसे त्योहारों के मौकों पर मंदिरों में और अन्य आयोजनों में उमड़ती हजारों लोगों की भीड़ से हिंदुत्व के प्रति ऑस्ट्रेलियाई लोगों की आस्था का अंदाजा लगाया जा सकता है.

महापुरुषों के वचन से किस्मत पलट जाती है।

सन्त महापुरुषों की शरण संगति में आने से उनके पावन सत्संग से जीव की किस्मत सँवर जाती है।

एक बार दशम पादशाही श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का दरबार सजा हुआ था कर्म फल के प्रसंग पर पावन वचन हो रहे थे कि जिसकी जो प्रारब्ध है उसे वही प्राप्त होता है कम या अधिक किसी को प्राप्त नहीं होता क्योंकि अपने किये हुये कर्मों का फल जीव को भुगतना ही पड़ता है। वचनों के पश्चात श्री मौज उठी कि जिस किसी को जो वस्तु की आवश्यकता हो वह निःसंकोच होकर माँग सकता है उसे हम आज पूरा करेंगे। एक श्रद्धालु ने हाथ जोड़ कर विनय की कि प्रभो मैं बहुत गरीब हूँ मेरी तमन्ना है कि मेरे पास बहुत सा धन हो जिससे मेरा गुज़ारा भी चल सके और साधु सन्तों की सेवा भी कर सकूँ उसकी भावना को देखकर श्री गुरुमहाराज जी ने शुभ आशीर्वाद दिया कि तुझे लखपति बनाया। दूसरे भक्त ने खड़े होकर हाथ जोड़कर विनय की श्री गुरुमहाराज जी ने पूछा क्यों भई तुम्हें धन की आवश्यकता है? उसने विनय की कि भगवन नहीं मेरे पास आपका दिया हुआ सब कुछ है लेकिन उसको सँभालने वाला नहीं है अर्थात पुत्र नहीं है।


आशीर्वाद दिया कि मैं अपने चार कुर्बान कर दूँगा तुझे चार दिये उसी गुरुमुख मण्डली में सत्संग में एक फकीर शाह रायबुलारदीन भी बैठे थे उसकी उत्सुकता को देखकर अन्तर्यामी गुरुदेव ने पूछा राय बुलारदीन आपको भी कुछ आवश्यकता हो तो निसन्देह निसंकोच होकर कहो। उसने हाथ जोड़ कर खड़े होकर विनय की कि प्रभो मुझे तो किसी भी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं है परन्तु मेरे मन में एक सन्देह उत्पन्न हो गया हैअगर आपकी कृपा हो तो मेरा सन्देह दूर कर दें।श्री वचन हुये कि सन्तमहापुरुषों की शरण में आकर जीव के संशय भ्रम दूर नहीं होंगे तो कहाँ होंगे,इसलिये अपना सन्देह हमें बताओ उसे अवश्य दूर करेंगे। वेनती की कि प्रभो अभी अभी आपने वचन फरमाये हैं कि प्रारब्ध से कम या अधिक किसी को नहीं मिलता अपने कर्मों का फल प्रत्येक जीव को भुगतना ही पड़ता है तो मेरे मन में सन्देह हुआ कि अभी जिसे आपने लखपति होने का आशीर्वाद दिया है
एक को चार पुत्र प्रदान किये हैं जब इनकी तकदीर में नहीं है तो आपने कहां से दे दिये?श्री गुरुमहाराज अति प्रसन्न हुये फरमाया रायबुलारदीन ये तेरा संशय नहीं है इन सबका संशय है आज सब के संशय भ्रम दूर हो जायेंगे।श्री गुरुमहाराज जी ने सेवक द्वारा एक कोरा कागज़ मोहर वाली स्याही मँगवाई और अपनी अँगुली की छाप(अँगूठी)उतार कर रायबुलारदीन से फरमाया कि बताओ इस अँगूठी के अक्षर उल्टे हैं कि सीधे?उसने उत्तर दिया कि उल्टे हैं सच्चे पादशाह। फिर स्याही में डुबो कर कोरे कागज़ पर मोहर छाप दी।अब पूछा बताओअक्षर उल्टे हुये है कि सीधे।उत्तर दिया कि महाराज अब सीधे हो गये हैं।श्री वचन हुये कि तुम्हारे प्रश्न का तुम्हें उत्तर दे दिया गया है।उसने विनय की भगवन मेरी समझ में कुछ नहींआया।श्री गुरु महाराज जी ने फरमाया जिस प्रकार छाप के अक्षर उल्टे थे लेकिन स्याही लगाने से छापने पर वह सीधे हो गये हैं।


इसी तरह ही जिस जीव के भाग्य उल्टे हों और अगर उसके मस्तक पर सन्त सतगुरु के चरण कमल की छाप लग जाये तो उसके भाग्य सीधे हो जाते हैं। सन्त महापुरुषों की शरण में आने से जीव की किस्मत पल्टा खा जाती है।भाग्य सितारा चमक जाता है।कहते हैं ब्राहृा जी ने चार वेद रचे इसके बाद जो स्याही बच गई वे उसे लेकर भगवान के पास गये उनसे प्रार्थना की कि इस स्याही का क्या करना है? भगवान ने कहा इस स्याही को ले जाकर सन्तों के हवाले कर दो उनकोअधिकार है कि वे लिखें या मिटा दें या जिस की किस्मत में जो लिखना चाहें लिख दें।


इसलिये जो सौभाग्यशाली जीव सतगुरु की चरण शरण में आ जाते हैं सतगुरु के चरणों कोअपने मस्तक पर धारण करते हैं सभी कार्य उनकी आज्ञा मौजानुसार निष्काम भाव से सेवा करते हैं सुमिरण करते हैं निःसन्देह यहाँ भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैंऔर कर्म बन्धन से छूटकर आवागमन के चक्र से आज़ाद होकर मालिक के सच्चे धाम को प्राप्त करते हैं।


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कँहा विराजमान है भगवान ?


एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए! कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता, तो भगवान के पास भागा-भागा आता और उन्हें अपनी परेशानियां बताता, उनसे कुछ न कुछ मांगने लगता!
 
अंतत: उन्होंने इस समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले- देवताओं, मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता हैं, जबकी मै उन्हे उसके कर्मानुसार सब कुछ दे रहा हुँ। फिर भी थोड़े से कष्ट मे ही मेरे पास आ जाता हैं। जिससे न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं, न ही तपस्या कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं, जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।
 
प्रभू के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए। गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं। भगवान ने कहा- यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में हैं। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा। इंद्रदेव ने सलाह दी- कि वह किसी महासागर में चले जाएं। वरुण देव बोले- आप अंतरिक्ष में चले जाइए।
 
भगवान ने कहा- एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा। भगवान निराश होने लगे थे। वह मन ही मन सोचने लगे- “क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं हैं, जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं"।
 
अंत में सूर्य देव बोले- प्रभू! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं! मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा, पर वह यहाँ आपको कदापि न तलाश करेगा। ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया और वह मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए।
 
उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को मन्दिर, ऊपर, नीचे, आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहें हैं।
 
परंतु मनुष्य कभी भी अपने भीतर- "हृदय रूपी मन्दिर" में बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पा रहा।