Tuesday, November 13, 2018

वृन्दावन बिहारी जी की लीला....

बिहारी तेरी यारी पे, बलिहारी रे बलिहारी...!!

बात आज से नौ वर्ष पूर्व वृन्दावन के मोतीझील स्थान के एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार की है।


एक १५-१६ वर्षीय श्वेतांक नामक किशोर दसवीं की परिक्षाएँ देने के बाद अपने नाना-नानी के यहाँ छुट्टियाँ बिताने आया।


वृन्दावन वह पहली बार आया था और वृन्दावन की महिमा उसने अपने नानाजी से हमेशा से ही सुनी हुई थी।


कोई बाहर से आता तो वे सर्वप्रथम बिहारीजी के दर्शन करने की कहते थे और कहते:-
"बेटा ! यहाँ तौ जो करैं सो बिहारीजी ही करैं, जाय कै सबसे पहले बिहारीजी के दर्शन करकै आओ, जो कछु हैं सो बिहारीजी ही हैं।"


एक डेढ महीने की छुट्टियाँ में वह यह सोचकर आया था वृन्दावन जाकर खूब घूमूंगा, दर्शन करुंगा।


लम्बी छुट्टियों के कारण घर से भी और कोई नही आया था उसके साथ, अपने मामा जी के साथ अकेला ही आया था।


अब यहाँ आने के बाद मामा जी ने उसे बिहारीजी के दर्शन करवाए, और वो अपनी छुट्टियों का आनन्द लेने लगा।


यहाँ घर पर नाना-नानी जी और मामा जी के अतिरिक्त घर के सदस्य के रुप में ही बाल गोपाल जी का श्रीविग्रह विराजमान था।


घर पर नाना जी से बिहारीजी की चर्चा सुनना और आस-पड़ोस के समवय बालकों के मित्र बन जाने से उनके साथ क्रिकेट वगैरह खेलना।
घूमने के बहाने घर के कुछ छोटे-मोटे काम वगैरह भी करके ले आता क्योंकि वहाँ घर पर मामा जी के अतिरिक्त उसे घुमाने वाला और कोई नही था।
नाना-नानी जी वृद्धावस्था और अस्वस्थता के कारण से असमर्थ थे और मामा जी अपने काम में व्यस्त।


एक दिन वह इसी तरह घर से निकलकर अखण्डानन्द आश्रम तक ही आया था कि बन्दरों के समूह ने उसे घेर लिया।


वह ये देख वह बहुत ही भयभीत हो गया क्योंकि उसके लिये ये सब बिल्कुल अप्रत्याशित था।


कुछ सूझ नही रहा था तभी उसे नाना जी की कही बिहारीजी वाली बात याद आ गयी कि- "यहाँ तौ जो करैं सो बिहारीजी करैं"


और वो कुछ मन में और कुछ जोर जोर से बिहारी जी, बिहारी जी पुकारने लगा अचानक उसे पीछे से आवाज सुनाई दी- "चलो भागो सब के सब।"
उसने पीछे मुड़कर देखा तो उससे तनिक छोटा हष्ट्पुष्ट एक बृजवासी बालक हाथ में एक लकड़ी लिये हुए सामने आ गया और बोला - "डर मत ! अब मैं आय गयो हूँ !"


और क्षण भर में ही सारे बन्दर भाग गये।


श्वेतांक ने बृजवासी बालक पूछा- तुम्हे बन्दरों से डर नही लगता तो हँस कर बोला - "नाँय, मोय डर नाँय लगे।"


बृजवासी बालक ने पूछा - "तुम कौन हो?"


श्वेतांक ने बताया- "मैं तो वृन्दावन घूमने आया था लेकिन कैसे घूमूं?"
बृजवासी बालक ने कहा- "मेरे संग चलो मैं घुमाय दूंगो"


अब वे मित्र बन गये और उस दिन वृन्दावन के कई मन्दिरों के दर्शन करवाने के बाद उस बालक ने अपने पास से ही श्वेतांक को चाट-पकौड़ी भी खिलाई और हर तरह से उसका ध्यान रखा और फ़िर दूसरे दिन मिलने का समय निश्चित कर दोनों वापस हो लिये।


अगले दिन वह फ़िर वहाँ पहुचाँ तो उस बालक को हाथ में छ्ड़ी लिये हुए हँसते हुए प्रतीक्षा करते हुए पाया।


उसके पास पहुँचते ही बोला - "तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रह्यौ हो।"
और फ़िर वही आनन्द से भरे दोनों वृन्दावन के मन्दिरों में दर्शन करते घूमते रहे, और जो भी खाने-पीने का मन हुआ खाया-पिया लेकिन प्रत्येक वस्तु का मूल्य बृजवासी बालक ने ही दिया और कई बार कहने पर भी देने नही दिया।


बृजवासी ने कहा -"अरे हमाय वृन्दावन घूमवे कूं आये हौ तो तुमै कैसे मूल्य दैवन दैंगे।"


इसी तरह चार-पाँच दिन बीत गये और लगभग वृन्दावन के सभी मन्दिरों के दर्शन हो गये थे।


एक दिन श्वेतांक ने बृजवासी बालक से पूछा- "तुम पैरों में जूते या चप्पल क्यों नही पहनते हो, चलो आज तुम्हारी चप्पलें ले लें।"


बृजवासी बालक ने जवाब दिया-"अरे भईया बिहारी जी में चप्पल पहन कै अन्दर नाँय जावैं याही तै नाय पहनूं।"


इन चार-पाँच दिनों में श्वेतांक ने घर में किसी से उस बृजवासी बालक की चर्चा नही की थी और उसे बताने का ध्यान भी नही आया था।
उसे तो बस एक दिन बीतने के बाद दूसरे दिन की प्रतीक्षा रहने लगी और घर पर सभी यही सोचते कि घर पर मन न लगने के कारण मित्र मण्डली के साथ क्रिकेट वगैरह खेल रहा होगा।


इधर एक दिन घूमते हुए कुछ देर हो गयी बृजवासी बालक ने हँसते हुए पूछा -"अब तौ खुश हौ वृन्दावन घूम कै?"


श्वेतांक ने हँस कर "हाँ" कहा और कुछ समय और साथ रहने के लिये कहा तो बृजवासी लगभग दौड़कर जाते हुए बोला - "नाँय ! अब बिहारी जी खुलबे कौ समय है गयौ है।"


और वह बृजवासी बालक हँसता हुआ बिना कुछ पूछने का मौका दिये आँखों से ओझल हो गया।


घर देर से पहुँचने पर नाना जी नाराज हुए कि -
"कहाँ घूमते रहते हो सारा समय, यहाँ सभी से पूछने पर उन्होने बताया तुम चार-पाँच दिनों से इनके साथ नही खेल रहे हो, कहाँ थे?"
श्वेतांक ने जब सारी बात नाना जी को बताई तो उन्होंने पूछा - "कैसा था वो बालक"


श्वेतांक ने बताया- "तेरह-चौदह वर्ष का है, घुटनों से कुछ नीची धोती और कुर्ता या बगलबंदी पहने साथ ही एक अंगोछा सा डाले हुए, हाथ में एक लकड़ी लिये हुये।"


श्वेतांक ने बताया- "मुझ पर तो उसने बहुत पैसे खर्च किये लेकिन पैसे होते हुए भी उसने अपने लिए चप्पलें नही लीं पता नही क्यों?"
उसके नानाजी ने उससे कहा कि- "कल उसे घर पर बुलाकर लाना और उसके पैसे देना।"


दूसरे दिन वह उस स्थान पर गया लेकिन उसे वह बृजवासी बालक कहीं नही मिला, बहुत ढूंढा पर वह कहीं नही दिखा, जबकि उसने पूछने पर बताया था कि वो यहीं पर तो रहता है, लेकिन अब हर जगह और हर गली में ढूंढने पर भी फ़िर कभी दिखाई नही दिया।


आज भी जब कभी श्वेतांक वृन्दावन आता है तो उसकी निगाहें, प्रत्येक स्थान पर, अपने उस मित्र को ढूढने की कोशिश करती हैं।
बाँके बिहारी लाल की जय...जय जय श्री राधे कृष्णा...
बिहारी तेरी यारी पे, बलिहारी रे बलिहारी...!!


हे ईश्वर हमारे ह्रदय में वो प्रेम भाव भर दो, जिससे विबस होकर बिहारी जी हमें भी बृन्दावन की सैर करवाये।

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